दिल के फ़साने -ग़ज़ल
अब वो दिल का फ़साना नहीं रहा,
इश्क़ करने का जमाना नहीं रहा।
वो मोहब्बत की दीवानगी का आलम ,
दिल में अब किसी का ठिकाना नहीं रहा।
जो कभी ख़्वाब सजते थे आँखों में ,
वो जामे दौर वो मयखाना नहीं रहा।
जान दे देते थे जो ईमान की खातिर ,
इंसानियत का वो पैमाना नहीं रहा ।
सजी गुफ्तगू की वो रंगीन महफिल ,
वो शेरो शायरी वो तराना नहीं रहा ।
गुजारी कई रातें जो बेखयाली में ,
दिल के किस्सों का अफ़साना नहीं रहा।
रसूख ए उसूल से गुलशन था घर ,
भलाई का अब वो ज़माना नहीं रहा।
उजड़े ख्वाब ,जर्द आशाएं हुई ,
उड़ते पंक्षी का कोई ठिकाना नहीं रहा ।
इन खामोश निगाहों से न पूछो सबब ,
‘असीमत’ वक्त वो अनजाना नहीं रहा ।