दिल-ए-मुज़तर को वाइज़ कोई समझाए तो सही
दिल-ए-मुज़तर को वाइज़ कोई समझाए तो सही
बार- ए – मोहब्बत कुछ रोज़ उठाए तो सही
अगरचे छूकर गुजरती हैं हर रंग का दामन
इन हवाओं को रंगकर कोई दिखाए तो सही
गले उससे मिलूँगी तो पिघल जाएगा वो भी
उल्फ़त मेरे सीने में आग लगाए तो सही
में अपने घर की दर-ओ-दीवारों को सज़ा लूं
कासिद उनके आने का संदेस लाए तो सही
रोज़ किया है याद हमें ये उनका दावा है तो
दौर-ए-फुरक़त में हिचकी कोई आए तो सही
अब जाओ किसी और की आँखों में बस जाओ
नींद मिरी पलकों पे कभी चैन पाए तो सही
बंदगी की हसरत ज़िंदगी में रखती है’सरु’
इस क़दर हमारे दिल पे कोई छाए तो सही