दिलजला
मैं किसी के शब्द चुरा कर हॉल ऐ दिल पूछता नहीं,
जो कहना स्पष्ट वहीं अपनें शब्दों में कहता हूँ,
ज़लालत से भरे अल्फ़ाज़ तो होश हवास में कहता नहीं,
जो करता है प्रयास अथक उसका उपहास मैं करता नहीं,
हर इंसान आँगन अपना ना जले मर कर भी बचाता है,
अपना घर फूँक के कौन मानव है जो तमाशा देखता है,
प्रवर्ति है ये खून में उसके की घर को मैं कैसे तोड़ू फोड़ू,
एक ये तो मैं हूँ जिसने उसने जहाँ जहाँ तोड़ा दीवार बनवा दी,
इन दीवारों को बनवाते बनवाते दायरा इतना तंग हो गया,
की अब तो उस तंग दायरे में हमारा साँस लेना दुर्भर हो गया,
कोई नहीं नज़दीक अंधेरे में खड़ी उन दीवारों कि सड़न है,
मैं किसी के शब्द चुरा कर हॉल ऐ दिल पूछता नहीं,
जो कहना स्पष्ट वहीं अपनें शब्दों में कहता हूँ।।
मुकेश पाटोदिया”सुर”