भरोसा नहीं रहा।
अब मुझे किसी पर
भरोसा नहीं रहा
जिस महफिल का मैं
सुरज और चाँद
हुआ करता था
आज उस महफिल में
मेरे लिए जगह नही रहा।
जिस महफिल में
कभी हर जगह
मेरा चर्चा हुआ करता था
तू शान है इस महफिल की
यह कहकर मेरा
अभिवादन हुआ करता था
आज उसी महफिल में
सब ने मुझे पहचानने से
इनकार कर दिया
मै जरिया था सिर्फ उन्हें
उनकी मंजिल तक लाने का
यह कहकर उन्होंने मेरा
मजाक उड़ा दिया।
दो-चार कदम चलने से
कोई अपना नहीं होता
मुझसे उम्मीद न रखो तुम
किसी तरह के कोई वफा का
यह कह कर उन्होंने मुझे
महफिल से निकाल दिया।
उनके इस बेरूखी ने मेरे
दिलो-दिमाग को झकझोर दिया
बोलना चाहता था मै बहुत कुछ
फिर भी मै खामोश रहा
जवाब देने के लिए मैने भी
उस महफिल के सामने
उससे भी बड़ा महफिल
खड़ा कर दिया।
अब में किसी हादसे से घबराता नही
क्योकिं जिन्दगी ने मुझे
एक अच्छा तजुर्बाकार
है बना दिया
रहा भरोसा का तो
वह अब मैं अपने आप
पर भी नही करता
क्योकि इस भरोसे शब्द ने
कई बार मेरे जिन्दगी को
दुश्वार कर दिया।
~ अनामिका