दार्जलिंग का एक गाँव सुकना
हरियाली जहाँ करे अठखेली,
पंछी कलरव करके गायें।
विविधाकार झुंड कुंजर का,
संध्या होते नित आ जाये।
हरे भरे तृण बागानों में,
शिखी सखी के संग आ जाता।
पीहू पीहू कर गीत सुनाकर,
नर्तन करके सहज लुभाता।
चाय बगीचे वहाँ तक पसरे,
लगता क्षितिज करे आलिंगन।
भूधर की उन्नत चोटी को,
वारिद छूकर करें अभिनन्दन।
रिमझिम रिमझिम वर्षा बूंदें,
वीणा की झनकार सुनातीं।
कभी कभी कोई काली बदली,
मेरे द्वारे तक आ जाती।
महानन्दा सरि का कल कल कल लगता कोई कंगना खनकाये।
प्रकृति की यह अनुपम आभा,
परदेशी के मन को भाये।
ट्रेन हिमालयन छुक छुक करती,
मन्थर मन्थर पथ पर आती।
सुकना गाँव में जरा ठहर कर,
करसोंग होते दार्जिलिंग जाती।
सैलानी की टोली कहती,
मेरे मन थोड़ा और ठहरना।
जनपद दर्जिलिंग का ये सुकना,
लगता कोई सुंदर गहना।
-सतीश सृजन, लखनऊ.