दहलीज से दहलीज तक
दहलीज से दहलीज तक
(हर औरत को समर्पित)
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इस दहलीज से ……..
उस दहलीज तक जाने में
कतर जाते हैं उसके पंख
बिखर जाते हैं उसके ख्वाब
चुभती हैं टूटे काँच सी इच्छाएँ
और सहम जाती है उसकी हँसी
सब टूट फूट समेट कर रख देती है वो
एक कोने में गठरी बाँधकर……
भुला देती है वो इसे डायरी में रखे
सूखे गुलाब की तरह….
और फिर जुट जाती है
मुस्कान का आँचल ओढ़कर
नये परिवेश से तालमेल बैठाने को
अलसुबह से अधरात तक
चरखी की तरह घूमती
सबकी सुनती,सबको सहेजती
थक कर चूर खटिया में ढलती
अगली सुबह उगने के लिए
सूर्य सी ऊर्जा लिए
ताउम्र पिघलती है वो,
जलती है मोमबत्ती की तरह,
अपनों की सलामती के लिए
पर फिर भी…..
तरसती क्यों है हर पल
प्यार भरी एक नजर के लिए
✍हेमा तिवारी भट्ट✍