दस्तक भूली राह दरवाजा
कहने को घर है
मकान है/ द्वार है
दस्तक है…
मैं हूं/तुम हो/सब हैं
मिलने-जुलने वाले हैं
लेकिन हुआ क्या…?
दस्तक मौन है।।
बाहर स्वागतम् लिखा है
मुद्दत हुई कोई आया नहीं
दरवाजे से ज्यादा अब
मोबाइल की घंटी बजती है
कितने रिश्ते
डिजिटल हो गये..?
कितने नाते
मौन हो गये।
सुनो..!!
इस मौन का घेरा यूं
ही नहीं पसरा…यहां
इसके दोषी सब हैं
एक संवेदना की मौत
एक भावना की अर्थी
किसने ढोयी
जी हां
हम सबने ढोयी।
अब दरवाजा भी क्या करे
किसको पुकारे
किसको आवाज दे…
शिलालेख पर लिखी
इबारतें शिलाओं की
होती हैं…..
सच मानो दोस्त…!!
उनको कोई पढ़ता नहीं।
दरवाजा हो/ दीमक हो
दस्तक हो/ या हो दोस्त
दिल से दिल की
दूरी हो गई।।
क्या ऐसी मजबूरी हो गई।।
सूर्यकांत द्विवेदी