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7 Oct 2019 · 1 min read

दशहरा नही मनाऊंगा

दशहरा मैं नही मनाऊंगा
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
निकल पड़ा दशहरा देखने ,
भीड़ थी काफी सड़को पर।
जीवन जान जोखिम भरा,
फिर भी गम नहीं मानव पर।
लगी दुकानें मिठाइयों की ,
धूलो से खूब सनी थी।
बच्चें के आगे हम भी,
बेबस हो पड़े थे ।
बच्चों के खिलौनें सजे,
देख देख रोने लगे।
शौक पूरा करने को,
पत्नी जिद करने लगे।
भरी भीड़ खचाखच में,
कौन किनको जानता है?
पैर के ऊपर पैर सटे है,
लोग धक्का दे जाते है।
रावण के उन पुतलों को,
देखने सब जाते है।
रावण दहन करके ,
पटाखे फोड़े जाते है।
पटाखे से कभी जलते,
कभी बच्चें खो जाते हैं।
नारियों की आबरू से कभी,
बदमाश छेड़ जाते हैं।
कलयुग के इन रावणों को,
मैं जलाऊँगा ?
मन ही मन सोचता हूं,
दशहरा मैं नही मनाऊंगा।
◆◆◆◆●◆◆◆●◆◆●●◆
रचनाकार डिजेन्द्र कुर्रे”कोहिनूर”
पिपरभावना, बलौदाबाजार(छ.ग.)
मो. 8120587822

Language: Hindi
2 Likes · 2 Comments · 392 Views
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