चाँद से वार्तालाप
ऐ चाँद!
सूरज ने तुम्हें सोलहों कलाएं दीं
बेवजह
धरती के लिए
जैसे भारत की धरती के
मनुपुत्रों ने
छल-बल लिए समस्त
दलितों के विरुद्ध
अकड़ने के लिए
ऐ चाँद!
तेरी चांदनी
कवि का रचना-उपजीव्य है
उपमान है सुंदरता का
लेकिन
गहरे गड्ढा बदन हो तुम
जैसे भीतर से बदरंग विषैले
मनुपुत्र मनुज होते हैं
उजियारे मगर महज ऊपर ऊपर
ऐ चाँद!
न तेरा काला अपना
न तेरा उजला अपना
न तेरा चटख अपना
न मटमैला अपना
अपने साबुत रंग के सिवा
जो तुझ पर चढ़ा है
वह थोड़ा नीचे की धरती का
और बकिये सब
ऊपर के सूरज का किया धरा है
ऐ चाँद!
जग में वैसे न कुछ नीचे
न ही ऊपर होता है
धरा सापेक्ष ही है सब कुछ खगोल का
वैसे ही
हमारा सब कुछ नीचे ऊपर है
जात का सब ऊपर नीचे जैसे
मनु विधान का कियाधरा है
ऐ चाँद!
तुमसे भरते हैं मुसलमान अपने में
सारे बहिर धर्म प्राण
जैसे सूरज से पा लेते हैं हिन्दू
सगरे धर्मविकारी खर पात
ऐ चाँद!
तुम बच्चों के मामा हो
आश्वासन पाने का सामान
बड़े लेकिन तुझको लेकर क्यूँ
हैं हो जाते इतने नादान?