दलित साहित्य के महानायक : ओमप्रकाश वाल्मीकि
दलित समाज के गौरव और हिन्दी व दलित साहित्य के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, कवि, कथाकार आलोचक, नाटककार, निर्देशक, अभिनेता, एक्टिविष्ट आदि बहुमुखी प्रतिभा के धनी ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का जन्म 30 जून 1950 को ग्राम बरला, जिला मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) में एक गरीब परिवार में हुआ था। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के पिता का नाम छोटन लाल व माता का नाम मुकन्दी देवी था। उनकी पत्नि का नाम चन्दा था, जो आपको बहुत प्रिय थी। अपनी भाभी की छोटी बहन को अपनी मर्जी से आपने अपनी जीवन संगनी के रूप में चुना था। उन्हें पत्नि के रूप में पाकर आप हमेशा खुश रहे। वाल्मीकि जी ने अपने घर का नाम भी अपनी पत्नि के नाम पर ‘‘चन्द्रायन’’ रखा है। जो उनकी पत्नि से उनके अद्धभुत प्रेम को दर्शाता है। वाल्मीकि जी के यहाँ पर कोई सन्तान नही थी। जब आपसे कोई अनजाने में पूछ लेता तो, तब चन्दा जी बताती थी कि हमारे बच्चे एक, दो नही बहुत बड़ा परिवार है। हमारे जितने छात्र ओमप्रकाश वाल्मीकि जी को पढ़ रहे है, उन पर शोध कार्य कर रहे है। वे सब हमारे ही तो बच्चे है। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के कार्यो पर पूरे देश में सैकडो छात्र-छात्राओ ने रिसर्च किया है। अपने मरणोपरान्त तक ओमप्रकाश वाल्मीकि जी भी भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास शिमला मे फैलो के रूप में शोध कार्य करते रहे। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का निधन देहरादून (उत्तराखंड) में लम्बे समय तक कैंसर से झुझते हुयें, 17 नवम्बर 2013 को हुआ। वाल्मीकि जी का जाना साहित्य जगत के लिए भारी क्षति है। जिसकी पूर्ति कभी नही हो पाएगी। मात्र 63 वर्ष की आयु मे वाल्मीकि जी हमारे बीच नही रहे। वाल्मीकि जी अपने जीवन मे दो, चार वर्ष और चाहते थे। ताकि वे लेखन के अपने कुछ अधूरे कार्य पूरे कर सके। अंतः तक वो कहते रहे कि दो-तीन वर्ष शरीर साथ दे दे तो कुछ और महत्वपूर्ण कार्य कर जाऊ, मगर ऐसा संभव नही हो सका।
दलित होने की पीड़ा को आपने बचपन से सहा है। जो जीवन भर साथ रही चाहे आप कही भी रहे, यही पीडा़ आपको लिखने के लिए प्रेरित करती रही। आपने हमेशा दलितो एवं पिछडो की मूलभूत समस्याओ पर लिखा है। वाल्मीकि जी ने नौकरी करते हुए अनेक स्थानों की यात्रा की। वाल्मीकि जी ने देहरादून से जबलपुर, फिर मुम्बई, चन्द्रपुर की यात्रा की। सरकारी ऑर्डनेन्स विभाग की अपनी नौकरी की ट्रेनिंग के लिए आप महाराष्ट्र आये। यही वाल्मीकि जी ने दलित आन्दोलन को बहुत करीब से देखा। यहाँ के दलित आन्दोलन के नेताओ और कार्यकर्ताओं के साथ जुड़कर आपने डॉ. भीमराव अम्बेडकर और उनके जीवन संघर्ष को समझा, यही से प्रेरणा लेकर दलित लेखन से जुड गये और महाराष्ट्र से लोटने के बाद वाल्मीकि जी ने अपने विचारो को लेखन के माध्यम से सम्पूर्ण भारत तक ले गयें। वाल्मीकि जी ने अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ लिखकर दलित साहित्य को अन्तराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलायी। जूठन के द्वारा वाल्मीकि जी ने हिन्दी साहित्य में नई जमीन तोडी थी, जिसने अभिजात्यता और प्रभुता की जडों को खोदा, शुद्धता और शुचितावादी साहित्यकारो की नशों को हिलाया तथा हिन्दी साहित्य के इतिहास और समाजशास्त्र को बदल कर रख दिया। जूठन के माध्यम से वाल्मीकि जी ने वाल्मीकि समाज की दुर्दशा की ओर समाज का ध्यान आकृष्ठ किया। मनुष्यों के समाज में वाल्मीकि समाज यानि (सफाई कामगार समुदाय) किस प्रकार अमानवीय जीवन जीने के लिए विवश है। जूठन के प्रकाशित होने के बाद उस पर चर्चा ने जो प्रभाव छोडा वह अद्धभुत था। जूठन ने कई दलित साहित्यकारो को आत्मकथा लिखने के लिए प्रेेरित किया। वाल्मीकि जी की आत्मकथा हिन्दी दलित आत्मकथाओ में सर्वश्रेष्ट मानी गई। जिसका अनुवाद सभी भारतीय भाषाओ मे जैसे- पंजाबी, बंगाली, तेलगू, गुजराती, ऊर्दू, मराठी, तमिल, उडि़या मलियालम, कन्नड आदि तथा विदेशी भाषा जैसे- अंग्रेजी, फ्रेंच, स्वीडिश आदि में हुआ। इससे वाल्मीकि जी की आत्मकथा बहुत प्रसिद्ध बन गई। जूठन को अनेक विश्वविधालयों में दलित पाठयक्रम के अन्तर्गत पढाया जा रहा है। जूठन के अतिरिक्त भी वाल्मीकि जी की कई कहानियां व कविताएं भी अत्यन्त चर्चित हुई जिनमे घुसपैठियें, छतरी, अम्मा, सलाम, पच्चीस चौका डेड सौ और बिरम की बहु व अन्य बहुत महत्वपूर्ण है। वाल्मीकि जी का पहला कविता संग्रह ‘‘सदियो का सन्ताप’’ (1989) में छपा इसके बाद “बस्स बहुत हो चुका” (1997) में छपा। ‘‘अब और नही’’ और ‘‘शब्द झूठ नही बालते’’ क्रमशः 2009 व 2012 में छपे। इस तरह वाल्मीकि जी के चार कविता संग्रह छपे है। उन्होने कांचा एलैय्या की पुस्तक का हिन्दी अनुवाद ‘‘क्यों मै हिन्दू नही हूँ’ तथा साइरन का शहर (अरूण काले का कविता संग्रह) का हिन्दी अनुवाद किया। ‘‘सदियो का संताप’’ कविता संग्रह में संकलित ‘ठाकुर का कुआँ’ बहुत ही मार्मिक कविता है। इसमें ग्रामीण परिवेश में होने वाले शोषण को उजागर किया गया है। जो इस प्रकार से है-
चुल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का
बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मुठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की
कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत खलिहान ठाकुर का
फिर अपना क्या ?
गाँव ? शहर ? देश ?
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने वाल्मीकि समाज की ऐतिहासिक, समाजिक, एवं सास्कृतिक पृष्ठभूमि को ‘सफाई देवता’ नामक अपनी पुस्तक में संजोकर समाज के सामने पेश किया। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने वैचारिक पुस्तके भी लिखी जिनमे दो प्रमुख थी। ‘‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’’ और ‘‘मुख्यधारा व दलित साहित्य’’ में वाल्मीकि जी ने कई मुद्धे उठाये है। जैसे कि मेरे लिखने का कारण, मेरी रचना प्रकिया, मुख्याधारा के यथार्थ, दलित चेतना और हिन्दी कथा साहित्य आदिं। देश की जानी-मानी कई पत्रिकाओ में जैसे प्रज्ञा साहित्य, दलित हस्तक्षेप, तीसरा पक्ष, दलित दस्तक, कदम आदि का वाल्मीकि जी ने अतिथि सम्पादन किया। वाल्मीकि जी के लेखन की विशेषता यह है कि वह दलित और गैर दलित सभी वर्गो के द्वारा पढ़े जातें है। वाल्मीकि जी का लेखन अम्बेडकरवाद को हमेशा आगे लेकर चला। वे कहते रहे कि बाबा साहेब को पढ़े बिना कोई दलित साहित्य के बारे मे नही लिख सकता। उनके कार्यों के मूल्यांकन के स्वरूप उन्हे अनेको पुरूस्कारो से सम्मानित किया गया है- डॉ. अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार (1993), परिवेश सम्मान (1995), जय श्री सम्मान (1996), कथाक्रम सम्मान (2001), न्यू इडिया बुक प्राइज (2004), 8 वां विश्व हिन्दी सम्मेलन सम्मान (2007), न्यूयार्क, अमेरिका साहित्य भूषण सम्मान (2006) मे दिया गया। वाल्मीकि जी ने अन्तिम दिनो में कैलाश चन्द चौहान के उपन्यास ‘‘भँवर’’ का अभिमत लिखा था। वाल्मीकि जी ने जातिवाद पर कठोर कटाक्ष किये। उन्होने लिखा-:
स्वीकार्य नही मुझे जाना
मृत्यु के बाद,
तुम्हारे स्वर्ग में,
वहाँ भी तुम पहचानोगे
मुझे मेरी जाति से ही।
और आगे कहा न जाने किसने / तुम्हारे गले में डाल दिया /जाति का फंदा / जो न तुम्हें जीने देता है / न हमे। पिछले साल 2013 मे उनका अन्तिम आलोचना ग्रन्थ ‘‘दलित साहित्य : अनुभव, संघर्ष एवं यथार्थ” आया। किताब के पहले खण्ड के प्रथम अध्याय के आखिर में उन्होने लिखा हैः जाति की यह भावना समाज मे इतनी गहरी है कि दलित भी इससे अछूते नही है। दलितो मे भी एक ऐसा वर्ग है, जो इससे मुक्त नही होना चाहता है। उनका जातिवाद के प्रति यह अन्तर्द्धन्द उस वक्त खुलकर सामने आया जब एक कहानी ‘‘शवयात्रा’’ इंडिया टुडे (22 जुलाई, 1998) मे प्रकाशित हुई। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का अंतिम साक्षात्कार हीरालाल राजस्थानी द्वारा लिया गया। उसमे वे एक प्रश्न पूछते है जिसका जिक्र करना यहाँ मे जरूरी समझता हूँ। हीरालाल जी पूछते है कि जिसे सफाई के काम की वजह से ये छूआछूत का दंश झेलना पडता है, तो आप मानते है कि यह काम छोड देना चाहिए ? ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने उत्तर दिया कि ‘‘ओके, मानता हूँ’’ छोड देना चाहिए, लेकिन उसका कुछ अल्टरनेट तो दो उनको भूखे मरने के लिए क्यों छोड रहे हो। उनके पास करने के लिए दूसरा काम कुछ भी नही है। पहले कुछ काम तो देना होगा और काम देने का दायित्व राज्य सरकार का है। सरकार उनके पुर्नवसन की व्यवस्था तो करे अन्यथा तो वे भूखे मर जायेगे, हो सकता है कि कुछ लोग मेरी बात से सहमत न हो लेकिन मेरा ये कहना है कि जब उनके पास वैकल्पिक आधार न हो, अपनी जीविका को चलाने का तो वह अपना काम कैसे छोड सकते है। जब दूसरा काम करने भी जाते है तो ये कहा जाता है कि आपकी जाति का काम तो सफाई कार्य करना है। वो करो ऐसी ताना कसी की जाती है। ऊँचे पदो पर होते हुए भी ऐसे वाक्य सुनने को मिलते है। एक दबाव बनाया जाता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी से मेरा परिचय भी एक अलग ही इत्तेफाक है। मैं वर्ष 2012 में चौ. चरण सिहं विश्वविधालय, मेरठ परिसर में छात्र संघ का चुनाव लड रहा था। जिसमे मैने चुनाव प्रचार के लिए अपने नाम के होर्डिंग्स विश्वविधालय के मुख्यद्वार पर लगाये थे। वही मुख्यद्वार के सामने एक पुस्तक विक्रेता हर शनिवार को बुक स्टाल लगाता है। मै मुख्यद्वार से गुजर रहा था, पुस्तक विक्रेता ने मुझे आवाज दी, वाल्मीकि जी आपके लिए आज विशेष पुस्तक है, जो आपको जरूर पढ़नी चाहिए। ये अलग बात है कि उन्होने पुस्तक बेचने के लिए ऐसा कहा था या फिर वो वास्तव में मुझे वाल्मीकि जी के बारे मे परिचित कराना चाहते थे ? उन्होने मुझे कहा कि क्या आपने ओमप्रकाश वाल्मीकि को पढ़ा है, मैने कहा, नही पढ़ा है। फिर उन्होने वाल्मीकि जी के बारे मे बताया तब पहली बार मुझे सन 2012 मे वाल्मीकि जी के बारे मे मालूम हुआ। मैंने जूठन पूरी पढ़ने के बाद वाल्मीकि जी से बात की अपने बारे मे बताया और उनकी पुस्तक जूठन के बारे मे उनसे चर्चा की। ऐसे मेरा परिचय वाल्मीकि जी से हुआ। जिनसे लगातार बात होती रही। मै उनसे कभी मिल नही पाया इसका मुझे जीवन भर पश्चाताप रहेगा। जबकि वाल्मीकि जी ने मुझे कई बार मिलने के लिए बुलाया। अनेको कारणो से मैं जा नहीं सका। उन्होने मेरा नाम सुनकर कहा था, आपने अपने नाम के पीछे वाल्मीकि लगाया है। ये बहुत ही अच्छा किया है, जो हो सबके सामने मजबूती से रखो।
अपने साहित्य मे वाल्मीकि जी ने कई पात्र सर्जित किये जो दलित समाज की आशा-विश्वास व संघर्ष के प्रतीक है। जूठन से वाल्मीकि जी ने विश्वस्तर पर पहचान व ख्याति प्राप्त की। हिन्दी दलित साहित्यकारो मे आप सबसे वरिष्ठ और सम्मानीय हो, आपकी स्मृति, आपके प्रति सम्मान हमेशा हमारे दिल मे रहेगा, हम आपको भूला नही पायेंगे।
:- नरेन्द्र वाल्मीकि
मो. 9720866612