दलित साहित्य / ओमप्रकाश वाल्मीकि और प्रह्लाद चंद्र दास की कहानी के दलित नायकों का तुलनात्मक अध्ययन // आनंद प्रवीण//Anandpravin
प्रह्लाद चंद्र दास जी की कहानियों का दलित समाज ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के ‘जूठन’ (1997) और ‘सलाम'(2004) के दलित समाज की अगली पीढ़ी है। हालांकि दोनों रचनाकारों का जन्म वर्ष एक(1950) है और कहानियों का प्रकाशन वर्ष भी आसपास ही है, बल्कि प्रह्लाद चंद्र दास जी का कहानी संग्रह ‘पुटूस के फूल’ (1998) ‘सलाम’ से कई वर्ष पहले प्रकाशित हो चुकी थी। फिर भी शायद अपने- अपने क्षेत्र ( पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार- झारखंड) की सामाजिक विशेषताओं में अंतर के कारण ऐसा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की रचनाओं के दलित नायक जहाँ इस दमघोंटू जातिवादी व्यवस्था को नकारने और इससे बाहर निकलने का प्रयत्न तो करते हैं, पर उन जातिवादी ठेकेदारों के मुकाबले खुद को कमजोर ही पाते हैं वहीं प्रह्लाद चंद्र दास जी की रचनाओं के दलित नायक उन ठेकेदारों को अपने यहाँ रोजगार देने वाली स्थिति में है। देश-भर में दलित वर्ग की बहुसंख्यक आबादी गांवों में निवास करती है, इसलिए गांवों के दलितों के जीवन में हुए परिवर्तन को ही वास्तविक परिवर्तन समझना चाहिए। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी अपनी कहानी ‘सलाम’ में तब के (हो सकता है आज भी कहीं सलाम वाली प्रथा चल रही हो) दलित समाज का चित्रण इस प्रकार करते हैं –
जुम्मन (दलित) के जँवाई ने ‘सलाम’ पर आने से मना कर दिया है।
…गाँव का बल्लू रांघड़ (तथाकथित ऊँची जात वाला) हालात देखकर खुद जुम्मन के घर आया। आते ही उसने जुम्मन और उसकी घरवाली को मेहमानों के सामने ही फटकार सुनाई।
” जुम्मन तेरा जँवाई इब तक ‘सलाम’ पर क्यों नहीं आया। तेरी बेटी का ब्याह है तो हमारा भी कुछ हक बनता है। जो नेग- दस्तूर है, वो तो निभाना ही पड़ेगा। हमारी बहू- बेटियाँ घर में बैठी इंतजार कर रही हैं। उसे ले के जल्दी आ जा …”
जुम्मन ने सिर पर लिपटा कपड़ा उतार कर बल्लू रांघड़ के पांव में धर दिया, ” चौधरी जी , जो सजा दोगे भुगत लूँगा। बेटी को बिदा हो जाण दो। जमाई पढ़ा – लिखा लड़का है, गाँव- देहात की रीत ना जाणे है।”
बल्लू रांघड़ जाते-जाते धमका गया – ” इन सहर वालों कू समझा देणा कव्वा कबी बी हंस ना बण सके है।”
(चूँकि बारात शहर से आई थी जहां पर ‘सलाम’ जैसी कूप्रथा नहीं थी।)
प्रह्लाद चंद्र दास जी अपनी कहानी ‘लटकी हुई शर्त'(‘पुटूस के फूल’ संग्रह से) में दलित समाज का चित्रण करते हैं –
गंगाराम( दुसाध) को हरखू काका (चमार) समझा रहे हैं-
“…और आज भी वही नियम चल रहा है। जब हम उनके यहाँ नौकर होते हैं तब की बात नहीं करता – तब तो हम खाते हैं, अपना जूठन आप साफ़ करते हैं और हमें मलाल नहीं होता। लेकिन, जब भोज-काज में ‘नेउत’ कर ले जाया जाता है, तब भी? उलटे, जब बाबुओं को हम नेउता देते हैं तो हमें ‘सूखा’ पहुँचाना पड़ता है। वे हमारे यहाँ बैठ कर नहीं खाते। और जो हम ‘सूखा’ देते हैं, पता नहीं, उसको वे खाते भी हैं या नौकर-चाकरों को दे देते हैं। इसके बारे में कभी सोचा है तुमने? समर्थ हुए हो तो जाति की इस दीवार को तोड़ो या फिर ऊँची जाति के होने के उनके दंभ को।” कहते हुए हरखू काका नीचे उतर गए थे। गंगाराम सोचता रह गया था।
धमाका हुआ था इस बार इलाके में। रामकिसुन बाबू (ब्राह्मण) की पोती की शादी में कोई भी ‘इतर’ जात खाने नहीं जायेगा । रामकिसुन बाबू अभी जीवित थे । सुना तो सन्न रह गये – “आखिर क्यों?”
गंगाराम ने ऐसा कहलवा भेजा है।
रामकिसुन बाबू ने औकात पहचानने की धमकी दी। अपनी औकात पहचानने लगा था गंगाराम। उसने पूरे इलाके में मुनादी करवाई – “शादी के दिन सबों का भोजन मेरे यहाँ । ”
तनाव बढ़ गया था। खेमे बंदी होने लगी थी। गंगाराम को यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि ‘सम्मान’ पाने के लिए सभी ‘इतर’ लालायित थे, जो उसकी छांव तले आ खड़े हुए थे। गंगाराम अचानक अपने को बहुत ताकतवर आदमी समझने लगा था। रामकिसुन बाबू उसके सामने बौने लगने लगे थे।”
ठीक शादी के दिन बहुत बड़े भोज का आयोजन हुआ। ‘गाँव की बेटी’ की शादी में दुसाध – चमार सबों ने जा कर रामकिसुन बाबू के यहाँ काम किया ज़रूर पर खाया नहीं किसी ने। खाना खाया समानांतर भोज में – गंगाराम के यहाँ। उस भोज में खाने के बाद जब हरखू काका जाने लगे तो गंगाराम ने रोक लिया- “मुझे अपने पैर छू लेने दो, काका । आज तुमने हमें आत्मसम्मान की ताकत बता दी। अगर तुम न होते….”
गंगाराम की शर्त जहाँ की तहाँ लटकी हुई है। कितनी शादियाँ बाबुओं के यहाँ हुईं, कितनी शादियाँ ‘इतरों’ के यहाँ हुईं लेकिन, न उन्होंने इनके यहाँ खाया, न इन्होंने उनके यहाँ। पहले तो ‘सूखा’ भी चला करता था। अब तो वह भी बंद है।
जुम्मन अपनी बेटी की शादी शहर में कर रहा है, पढ़ा-लिखा जमाई है अवश्य ही वह अन्य दलितों के मुकाबले आर्थिक और शैक्षिक रूप से मजबूत होगा। हो सकता है गंगाराम उससे अधिक समृद्ध हो पर इससे क्या फर्क पड़ता है। क्या किसी की हिम्मत होगी कि वह गंगाराम के घर जाकर उसे डांट दे ? हरखू काका अब भी मजदूर ही है, पर क्या उसकी स्थिति ऐसी है कि वह किसी के पांव में सिर धर दे ? कहना न होगा कि ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की कहानी ‘सलाम’ में जो दलित है वही दलित प्रह्लाद चंद्र दास जी की कहानी ‘लटकी हुई शर्त’ में नहीं है। संभव है गंगाराम और हरखू काका के एक- दो पीढ़ी पहले बिहार-झारखंड का दलित समाज भी जुम्मन की तरह का हो।
दास जी का कहानी- संग्रह ‘पराए लोग’ गाँव से जाकर शहर में बस गए दलित समुदाय के लोगों की कहानियों का संग्रह है। उन्होंने बारीक निगाहों से गाँव और शहर के जीवन को देखते – परखते हुए, उसे विभिन्न कसौटियों पर कसते हुए महत्वपूर्ण और जरूरी धरातल की तलाश कर कहानी कही है। उनकी कहानियों का दलित पात्र आत्मविश्वास से लबरेज और किसी भी विकट परिस्थिति से लड़ने और पार पाने का माद्दा रखता है। यह आत्मविश्वास और स्वाभिमान थोपा हुआ नहीं बल्कि वास्तविक है। बिहार – झारखंड के दलित समाज का वास्तविक चेहरा दिखाती इन कहानियों को पढ़ते हुए कहीं भी ऐसा नहीं लगेगा कि ये कैसे हो सकता है या ऐसा नहीं होता है या यही हमारा समाज नहीं है। दास जी केवल हमारे समाज का वास्तविक चेहरा ही नहीं दिखाते हैं बल्कि भविष्य को संवारने का रास्ता भी दिखाते हैं। कहानियों की रचना इतनी संजीदगी से हुई है कि प्रत्येक कहानी के खत्म होने तक पाठक उसका एक पात्र बन कर जुड़ा रहता है। प्रत्येक कहानी सामान्य जन- जीवन के बाहर- भीतर के चित्रों को बखूबी दिखाने का प्रयत्न करती है। संग्रह की पहली कहानी ‘एक और वामन’ धर्मनिरपेक्ष भारत के धर्म और सम्प्रदाय के आधार पर हुए दंगे की पड़ताल है। हालांकि 1984 ईस्वी में देश भर में हुए हिंदू – सिख दंगा ही इसका मूल आधार है, किंतु भारत में केवल इन्हीं दो धर्मों के लोग नहीं रहते हैं और सभी धर्म देश के दूसरे धर्म (खासकर हिंदू धर्म ; क्योंकि इस धर्म के ठेकेदारों को लगता है कि यह देश केवल उनका है।) के उन्माद के जद में रहते हैं। हिंदू – मुस्लिम दंगा इसका आम उदाहरण है। जिस तरह पौराणिक कथाओं में वामण ने महादानी राजा बलि को पराजित करने के लिए तीन डग में तीनों लोक नाप लिए थे और उन्हें अपने चरणों में झुका लिये थे, वैसे ही दंगाइयों ने भी पूरे देश के सभी धर्मों को निशाने पर ले रखा है और मौका पाते ही हत्या, लूट और दुष्कर्म जैसे कृत्य उनके मनोरंजन का विषय बन जाता है। ऐसी ही एक अन्य कहानी ‘मंदिर का मैदान’ है। यह कहानी देश में सरकार बदलने के कारण लोगों के सोचने में हुए बदलाव को रेखांकित करती है। नई सरकार के आते ही सभी धर्मों के लोगों ने धर्म – कर्म और धार्मिक स्थलों के निर्माण पर अधिक ध्यान देना आरंभ कर दिया। एक मोहल्ले के लोगों ने वहाँ के खुले मैदान में पहले से निर्मित शिव मंदिर के ठीक सामने पार्वती जी का मंदिर बनवाने का निर्णय लिया। उस मुहल्ले में हराधन और करीम जैसे मजदूर का परिवार भी रहता था। दोनों ने मिलकर मंदिर बनाया, बल्कि करीम की जहीन कारीगरी का इस मंदिर निर्माण में अधिक योगदान था, पर इससे क्या ? था तो वह मुसलमान ही न ! जैसे ही 2002 ईस्वी में गुजरात में दंगा हुआ, देश भर में हिंदू- मुस्लिम आमने-सामने आ गए। उस मंदिर प्रांगण में करीम का परिवार एकलौता मुस्लिम परिवार था। इसलिए उस पर मुहल्ला छोड़ने का दवाब डाला जाने लगा। हराधन जो कल तक उसका मित्र था, साथ में मेहनत- मजदूरी किया करता था ; आज इस विकट परिस्थिति में उसके साथ नहीं बल्कि अपने धार्मिक भाइयों के साथ हो लिया और करीम को कैसे भगाया जाए इसकी योजना बनाने लगा। उस मुहल्ले में एक शिक्षित दम्पति भी था जिन्हें करीम का भगाया जाना अनुचित लगा। वे कहते हैं – ” गजब के हिंदू हो तो ! कोई हिंदू – मंदिर बनाने में किसी मुसलमान का हाथ लगाना ठीक है, लेकिन उसी मंदिर प्रांगण में उसका वास होना वर्जित है ?” धार्मिक उन्माद न किसी को सोचने – विचारने का वक्त देता है न ही तर्क – वितर्क करने का। उसके पास खतरनाक हथियार होता है, वह खून मांगता है। करीम खून-खराबा नहीं चाहता था, उसके पास ऐसे ही एक दंगा का बहुत बुरा अनुभव है। वह बिना कोई सवाल किए मुहल्ला खाली कर देता है तो उन्मादियों में से एक कहता है – ” बिना किसी हीले- हवाले के कटुवों से छुट्टी मिल गई ! … उनके भाग अच्छे थे साले चले गए ! नहीं तो हमारा हराधन मिस्त्री तो तैयार ही था !”
क्या हराधन की यह तैयारी करीम और उसके परिवार के स्वागत के लिए रही होगी ? बिल्कुल नहीं, बल्कि उसके परिवार को तहस-नहस करने की तैयारी थी।
संग्रह में ‘धोखा’, कारखाना बनने से आसपास के लोगों को रोजी- रोजगार मिलने, जिंदगी सरल हो जाने, सबकी सामाजिक स्थिति समान हो जाने और फिर कुछ साल बाद कारखाना के बंद हो जाने पर पुनः समाज का पिछली स्थिति की ओर जाने की मार्मिक कहानी है। नकुल दास कहानी के केन्द्र में है। भूमिहीन दलित समाज से आने वाला नकुल दास कारखाना में रोजगार मिलने से सम्पन्न हो गया है। वह आसपास के रघु सिंह, चिरु महतो, विपिन मंडल, गोपाल तिवारी आदि (कारखाना बनने के पूर्व के जमींदारों) से किसी तरह कम नहीं है, बल्कि वे लोग भी उसके साथ ही काम करते हैं। पर जैसे ही कारखाना बंद होने की स्थिति आती है और उसे इसकी खबर मिलती है तो उस पर इस खबर का बहुत बुरा असर पड़ता है और वह ‘ एबनॉर्मल ‘ हो जाता है। इस मार्मिक स्थिति का वर्णन इतनी खूबसूरती से हुआ है कि नकुल दास का चरित्र जीवंत हो उठता है। कारखाना में या कहीं भी नौकरी करने वाला व्यक्ति, जिसका वर्तमान और भविष्य पूरा का पूरा उसी पर निर्भर है; अगर उससे उसकी नौकरी सरकारी नियमों में बदलाव के कारण छिन जाती है तो उसकी स्थिति कैसी होगी ! इसी पर प्रकाश डालती है यह कहानी।
‘एकै मटिया – एक कुम्हारा…’ शीर्षक कहानी में दिखाया गया है कि किस तरह एक पिछड़ी जाति की दाई दलितों और मुसलमानों के घर काम नहीं करना चाहती है और अंजाने में अगर काम कर भी लेती है तो उसके परिवार वाले उसे शुद्ध करने के लिए गंगा – स्नान कराने ले जाते हैं। उसी जाति की एक दूसरी दाई दलितों और मुसलमानों के घर काम करने से परहेज नहीं करती है। उसका मानना है ‘भरपेटों का धरम और खाली पेटों का धरम अलग-अलग होता है। हम खाली पेटे जब भरपेटों की नकल करने लगते हैं, हम पर संकट तभी आती है। ऐसी ही एक कहानी ‘ढोल- ढकेल’ है, जो हमारे गाँवों में प्रचलित कथाओं का साहित्यिक रूप है। हमारे यहाँ कथाओं में जब किसी बूढ़ी औरत का जिक्र होता है तो वह केवल बूढ़ी औरत नहीं होती है, ‘बूढ़ी ब्राह्मणी’ औरत होती है। संत कबीर और संत रैदास के जन्म से जुड़े इसी तरह के किस्से से हर कोई वाकिफ है। लगता है कि इस तरह के विशेष कार्यों के लिए ब्राह्मण जाति के लोगों ने ठेका ले रखा है। तो, वह ‘बूढ़ी ब्राह्मणी’ (षष्ठी माता) एक क्षत्रिय राजा की एकलौती पुत्री(राजकुमारी) के भाग्य में डोम से शादी लिख देती है। वह जब बड़ी होती है और उसे पता चलता है कि उसकी शादी एक डोम से होना तय है तो वह बेहोश हो जाती है। आत्महत्या के ख्याल से वह गंगा नदी की ओर प्रस्थान करती है, पर रास्ते में एक डोम राजा का राज्य पड़ता था और वह वहीं रहने लगती है। राजा पहली नजर में ही उसे पसंद कर लेता है और शादी की तैयारी करने का आदेश देता है। पहले तो राजकुमारी बहुत खुश होती है, क्योंकि उसके पिता के राज्य से कई गुना बड़ा राज्य का मालिक, युवा और खुबसूरत राजा से उसकी शादी जो होनी है। पर जैसे ही वह राजा की जाति जानती है, शादी से इंकार कर देती है। उसे मनाने के लिए देवलोक से शिव और पार्वती आते हैं, पर वह सामान्य रूप में नहीं आते हैं। पार्वती एक ब्राह्मणी (बाकी जाति की युवतियां उनकी नजर में तुच्छ होगी शायद) के रूप में आती हैं और शिव कुत्ता(उनकी नजर में कुत्ता नीच से नीचे जीव है) के रूप में। वे यह दिखाना चाह रहे हैं कि पति चाहे जैसे भी हो उसे स्वीकार करना चाहिए। देवी पार्वती कहती हैं – ” उस लड़की को मुझे समझाना है कि ‘वर’ तो भगवान होता है। डोम क्यों, कुत्ता भी हो तो उसका सम्मान करना चाहिए।”
असल में देवी पार्वती समझाना चाह रही हैं कि ‘डोम’ नीच तो होता ही है पर उसका भी सम्मान करना चाहिए।
शिव भी जाते-जाते ऐलान करते हैं – “राजा सिर्फ राजा होगा उसकी कोई जाति नहीं होगी।”
अर्थात जो राजा नहीं है उसकी जाति होगी। यानी आम आदमी के लिए भगवान भी जातिवादी हैं। यह सही भी है कि चोर जब चोरी करने के लिए जाता है तो वह भगवान का नाम लेकर जाता है, प्रेमी अपनी प्रेमिका से मिलने जाता है तो भगवान का नाम लेकर जाता है, बलात्कारी भी जब अपने कार्य को अंजाम दे रहा होता है तो शायद खुद को पुलिस और कानून से बचाने के लिए भगवान का नाम लेता होगा। मतलब चोर का भगवान चोरी में संरक्षण देता है, प्रेमी का प्रेम में और बलात्कारी का बलात्कार में ; तो फिर जातिवादी लोगों को जातिवाद फैलाने में संरक्षण क्यों नहीं दे सकता है ? भगवान जिसका भी होगा हर तरह से उसके जैसा ही होगा। हिंदुओं का भगवान वास्तव में ब्राह्मणों का भगवान है जो अपनी जाति को बाकी हिंदू जातियों से श्रेष्ठ समझता है। इसलिए उसके भगवान को इस तरह जातिवादी होना कोई अचंभित करने वाली बात नहीं है।
‘गलत हिसाब’ शीर्षक कहानी मुसहर (दलित) समाज का एक युवक मथुरा प्रसाद की कहानी है, जो ग्रामीण परिवेश से अभी-अभी बाहर निकलकर शहर में नौकरी करने आया है और आते ही एक पंडित दीनबंधु तिवारी के चंगुल में फंस जाता है। वह पंडित चपरासी है, पर पास के भंगी (दलित) बस्ती को अपनी पंडिताई से प्रभावित कर कमाई का एक बेहतर स्रोत बना लिया है। पंडित के प्रभाव में आकर उस बस्ती में प्रतिदिन किसी न किसी के घर सत्यनारायण कथा होता ही रहता है। पूरा बस्ती ‘धर्म – परायण’ है, और सबके घर महावीरी झंडा लहर रहा होता है। मथुरा प्रसाद को उसी बस्ती में मकान दिलवाकर उसे अपना सहयोगी बना लेता है। वह भी पंडित के कहे अनुसार अपने व्यवहार में उसके जैसा दिखने के लिए जरूरी बदलाव लाता है और कुछ ही दिनों में ‘बाबा’ कहलाने लगता है। अब वह भी दलितों की बस्ती में खुद को नवब्राह्मण महसूस करने लगता है। इसी बीच एक युवती चुमकी से उसका शारीरिक संबंध भी हो जाता है। जैसे ही यह खबर गाँव में उसकी पत्नी भुसिया देवी तक पहुँचती है वह अपने ‘ससुर’ को साथ लेकर मथुरा प्रसाद के डेरे तक पहुँच जाती है। चुमकी से संबंध का खुलासा होते ही उन्हें अपना मकान बदलना पड़ा। नया मकान ‘भद्र’ लोगों की कॉलोनी में लिया गया। मकान में प्रवेश के दिन पूजा कराने का फैसला किया गया, किन्तु पूजा में कोई नहीं आया। कारण यह था कि भद्र लोग तो भद्र लोग ठहरे, उन्हें उनकी जाति का आभास हो गया था। दलित बस्ती के लोग उनसे बहुत नाराज थे और उन्हें निमंत्रित भी नहीं किया गया था, इसलिए उनके आने की उम्मीद भी नहीं थी। उस बस्ती से केवल एक नवयुवक अशर्फी आया है जिसे भुसिया देवी ने बुलाया है। पूजा में किसी ‘भद्र जनों’ के न आने पर भुसिया देवी कहती है – ” तुमने शायद यह सोचा हो कि, बाम्हनों वाले नखरे करने से लोग तुम्हें बाम्हन मान लेंगे। सो अभी तो नहीं हुआ। और जो हुआ , वह तुम देख रहे हो कि कोई अब तुम्हारे पास तक नहीं फटकना चाहता। पराए तो पराए थे ही, अपनों को भी तुमने पराया बना लिया !”
कथाओं में वामण ने महादानी राजा बलि को पराजित करने के लिए तीन डग में तीनों लोक नाप लिए थे और उन्हें अपने चरणों में झुका लिये थे, वैसे ही दंगाइयों ने भी पूरे देश के सभी धर्मों को निशाने पर ले रखा है और मौका पाते ही हत्या, लूट और दुष्कर्म जैसे कृत्य उनके मनोरंजन का विषय बन जाता है। ऐसी ही एक अन्य कहानी ‘मंदिर का मैदान’ है। यह कहानी देश में सरकार बदलने के कारण लोगों के सोचने में हुए बदलाव को रेखांकित करती है। नई सरकार के आते ही सभी धर्मों के लोगों ने धर्म – कर्म और धार्मिक स्थलों के निर्माण पर अधिक ध्यान देना आरंभ कर दिया। एक मोहल्ले के लोगों ने वहाँ के खुले मैदान में पहले से निर्मित शिव मंदिर के ठीक सामने पार्वती जी का मंदिर बनवाने का निर्णय लिया। उस मुहल्ले में हराधन और करीम जैसे मजदूर का परिवार भी रहता था। दोनों ने मिलकर मंदिर बनाया, बल्कि करीम की जहीन कारीगरी का इस मंदिर निर्माण में अधिक योगदान था, पर इससे क्या ? था तो वह मुसलमान ही न ! जैसे ही 2002 ईस्वी में गुजरात में दंगा हुआ, देश भर में हिंदू- मुस्लिम आमने-सामने आ गए। उस मंदिर प्रांगण में करीम का परिवार एकलौता मुस्लिम परिवार था। इसलिए उस पर मुहल्ला छोड़ने का दवाब डाला जाने लगा। हराधन जो कल तक उसका मित्र था, साथ में मेहनत- मजदूरी किया करता था ; आज इस विकट परिस्थिति में उसके साथ नहीं बल्कि अपने धार्मिक भाइयों के साथ हो लिया और करीम को कैसे भगाया जाए इसकी योजना बनाने लगा। उस मुहल्ले में एक शिक्षित दम्पति भी था जिन्हें करीम का भगाया जाना अनुचित लगा। वे कहते हैं – ” गजब के हिंदू हो तो ! कोई हिंदू – मंदिर बनाने में किसी मुसलमान का हाथ लगाना ठीक है, लेकिन उसी मंदिर प्रांगण में उसका वास होना वर्जित है ?” धार्मिक उन्माद न किसी को सोचने – विचारने का वक्त देता है न ही तर्क – वितर्क करने का। उसके पास खतरनाक हथियार होता है, वह खून मांगता है। करीम खून-खराबा नहीं चाहता था, उसके पास ऐसे ही एक दंगा का बहुत बुरा अनुभव है। वह बिना कोई सवाल किए मुहल्ला खाली कर देता है तो उन्मादियों में से एक कहता है – ” बिना किसी हीले- हवाले के कटुवों से छुट्टी मिल गई ! … उनके भाग अच्छे थे साले चले गए ! नहीं तो हमारा हराधन मिस्त्री तो तैयार ही था !”
क्या हराधन की यह तैयारी करीम और उसके परिवार के स्वागत के लिए रही होगी ? बिल्कुल नहीं, बल्कि उसके परिवार को तहस-नहस करने की तैयारी थी।
संग्रह में ‘धोखा’, कारखाना बनने से आसपास के लोगों को रोजी- रोजगार मिलने, जिंदगी सरल हो जाने, सबकी सामाजिक स्थिति समान हो जाने और फिर कुछ साल बाद कारखाना के बंद हो जाने पर पुनः समाज का पिछली स्थिति की ओर जाने की मार्मिक कहानी है। नकुल दास कहानी के केन्द्र में है। भूमिहीन दलित समाज से आने वाला नकुल दास कारखाना में रोजगार मिलने से सम्पन्न हो गया है। वह आसपास के रघु सिंह, चिरु महतो, विपिन मंडल, गोपाल तिवारी आदि (कारखाना बनने के पूर्व के जमींदारों) से किसी तरह कम नहीं है, बल्कि वे लोग भी उसके साथ ही काम करते हैं। पर जैसे ही कारखाना बंद होने की स्थिति आती है और उसे इसकी खबर मिलती है तो उस पर इस खबर का बहुत बुरा असर पड़ता है और वह ‘ एबनॉर्मल ‘ हो जाता है। इस मार्मिक स्थिति का वर्णन इतनी खूबसूरती से हुआ है कि नकुल दास का चरित्र जीवंत हो उठता है। कारखाना में या कहीं भी नौकरी करने वाला व्यक्ति, जिसका वर्तमान और भविष्य पूरा का पूरा उसी पर निर्भर है; अगर उससे उसकी नौकरी सरकारी नियमों में बदलाव के कारण छिन जाती है तो उसकी स्थिति कैसी होगी ! इसी पर प्रकाश डालती है यह कहानी।
दिलवाकर उसे अपना सहयोगी बना लेता है। वह भी पंडित के कहे अनुसार अपने व्यवहार में उसके जैसा दिखने के लिए जरूरी बदलाव लाता है और कुछ ही दिनों में ‘बाबा’ कहलाने लगता है। अब वह भी दलितों की बस्ती में खुद को नवब्राह्मण महसूस करने लगता है। इसी बीच एक युवती चुमकी से उसका शारीरिक संबंध भी हो जाता है। जैसे ही यह खबर गाँव में उसकी पत्नी भुसिया देवी तक पहुँचती है वह अपने ‘ससुर’ को साथ लेकर मथुरा प्रसाद के डेरे तक पहुँच जाती है। चुमकी से संबंध का खुलासा होते ही उन्हें अपना मकान बदलना पड़ा। नया मकान ‘भद्र’ लोगों की कॉलोनी में लिया गया। मकान में प्रवेश के दिन पूजा कराने का फैसला किया गया, किन्तु पूजा में कोई नहीं आया। कारण यह था कि भद्र लोग तो भद्र लोग ठहरे, उन्हें उनकी जाति का आभास हो गया था। दलित बस्ती के लोग उनसे बहुत नाराज थे और उन्हें निमंत्रित भी नहीं किया गया था, इसलिए उनके आने की उम्मीद भी नहीं थी। उस बस्ती से केवल एक नवयुवक अशर्फी आया है जिसे भुसिया देवी ने बुलाया है। पूजा में किसी ‘भद्र जनों’ के न आने पर भुसिया देवी कहती है – ” तुमने शायद यह सोचा हो कि, बाम्हनों वाले नखरे करने से लोग तुम्हें बाम्हन मान लेंगे। सो अभी तो नहीं हुआ। और जो हुआ , वह तुम देख रहे हो कि कोई अब तुम्हारे पास तक नहीं फटकना चाहता। पराए तो पराए थे ही, अपनों को भी तुमने पराया बना लिया !”
इस पर अशर्फी कहता है – ” हमारे वर्ग-समाज में समर्थ होते ही लोग बाम्हन बनने की कोशिश में लग जाते हैं, अर्थात उसी के पिछलग्गू बनने की होड़ में, जिसने उनकी इतनी दुर्गति कर रखी होती है। इन लोगों को, इस व्यवस्था को तोड़ने की पहल करनी चाहिए, न कि उसी में शामिल होकर उसे और मजबूत करने की !”
मथुरा प्रसाद भी दीनबंधु तिवारी के व्यापार को समझ जाता है। वह वैसे भी भुसिया देवी और अशर्फी से अधिक पढ़ा- लिखा, होशियार और अनुभवी है। वह बिना देर किए, अपने बनावटी रूप को त्यागकर उन दोनों के विचार से सहमत हो जाता है। वे तीनों मिलकर पूजा – सामग्री को कूड़ेदान में फेंकने वाले ही होते हैं कि कॉलेज का प्रिंसिपल खान साहब का आगमन होता है। मथुरा प्रसाद कहता है – ” इन्हें जरा बगल के कूड़ेदान में फेंक आता हूँ। फिर प्रसाद क्या, पूरा भोज ही खाएंगे”
कहानी का अंत कुछ इस प्रकार होता है – ‘खान साहब झाँककर देखते हैं, अंदर सिर्फ दीनबंधु तिवारी बैठे हुए थे – अलबत्ता, परेशान हाल ! मानो कूड़ेदान में सत्यनारायण स्वामी का ताम-झाम नहीं, दीनबंधु का सारा भविष्य जा रहा हो !’
यह एक पिछलग्गू, डरा हुआ और कमजोर मथुरा प्रसाद का बेखौफ, मजबूत और अगुवा मथुरा प्रसाद बनने की कहानी है। यह कहानी इस बात की भी ताकीद करती है कि धार्मिक आडंबरों के त्याग के बिना बेखौफ और मजबूत चरित्र का निर्माण नहीं हो सकता है जिसे मथुरा प्रसाद ने प्राप्त किया है।
रूका हुआ प्रमोशन’ शीर्षक कहानी कार्यस्थल में दलित जातियों के कर्मियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार का सशक्त वर्णन है। रवि कुमार एक प्रतिभाशाली और कर्मठ इंजिनियर होता है। वह कम्पनी द्वारा आयोजित नियुक्ति प्रक्रिया से गुजरने के बाद इंजिनियर बना है, किंतु अन्य सभी कर्मियों के साथ ऐसा नहीं है, उसके पड़ोस में रहने वाला सिन्हा किसी मंत्री के सिफारिश पर नौकरी प्राप्त किया है और वह मंत्री उसके प्रमोशन के लिए भी सिफारिश करते रहते हैं। इसी बीच ‘प्रमोशन में आरक्षण’ बिल पास होता है जो जातिवादी मानसिकता के लोगों के लिए जले पर नमक छिड़कने वाला बिल साबित होता है और दलित कर्मियों को सोची-समझी साजिश के तहत कार्यस्थल में परेशान किया जाने लगता है ताकि उनका सर्विस रिकॉर्ड खराब हो जाए और प्रमोशन न पा सके। इन साजिशों से परेशान होकर कुमार की पत्नी मनु उसे नौकरी छोड़ अपने पिता के पास दुबई जाने के लिए कहती है, पर कुमार नहीं जाता है। कुमार और मनु की पुत्री सेतु और पड़ोसी सिन्हा की पुत्री एक साथ स्कूल में पढ़ती है। एक दिन सिन्हा की पुत्री ने सेतु को ‘चमार’ कहा तो उसने ने उसे बेल्ट से जमकर पीट दी, क्योंकि उसे लगा कि ‘चमार’ गाली होता है। इस खबर से तिलमिलाई मिसेज सिन्हा मनु को बहुत बुरा-भला कह गई- “चमार हो तो क्या पंडित कहेंगे? रिजर्वेशन से नौकरी हो गई तो औकात भूल गई?…।” मनु बहुत उदास हो गई थी। कुमार के आने पर उसने सारी बातें कह डाली और दुबई में अपने पिता के पास जाकर वहीं बस जाने की बात पर अड़ गई। कुमार कहता है – ” मनु इतना निराश मत हो ! तुमने गौर किया कि सेतु ने कहा, चमार एक गाली होती है ? … यह एक उपलब्धि है मनु, कि सेतु आज चमार को गाली के रूप में जाना रही है। हम इसे आजतक जाति ही समझ रहे थे ! … हमलोग इन गाली देने वालों को नजरें तक उठाकर देख नहीं सकते। सर झुकाकर सब बर्दाश्त किया। लेकिन, सेतु ने आज उस तिरस्कार और अपमान के खिलाफ हाथ उठा दिया !… मैं तो आज खुश हो गया ! मेरा तो रुके- बकाए के साथ आज प्रमोशन हो गया। न सिर्फ मेरा, बल्कि तुम्हारा भी ; क्योंकि हम सेतु के माता-पिता हैं। ”
‘अब का समय’ शीर्षक कहानी एक ऐसे दलित दम्पति की कहानी है जिसकी शादी के समय बैलगाड़ी से बरातियों को जाना पड़ा था, क्योंकि रास्ते में सवर्णों का टोला पड़ता था और वे दलितों को बड़ी – बड़ी गाड़ियों में चलते हुए नहीं देख सकते थे। वर्षों बाद उसी सवर्ण टोला से दो युवक आते हैं और उस दम्पति से नौकरी के लिए मदद का गुहार लगाते हैं। वे उनकी मदद करते हैं और नौकरी मिल भी जाती है पर गाँव में अब भी उनकी सोच वैसी ही है। अब भी वे दलितों की बस्ती में मोटरकार नहीं देख सकते, पर इससे क्या ? उस दम्पति ने अपनी गाड़ी उसके टोले से शान से ले गया और दलित बस्ती में रोका। उन लोगों ने पता किया कि गाड़ी किसकी थी, पता चलते ही सब शांत हो गए। सिर्फ एक बूढ़े ने लम्बी सांस खींची और आसमान की ओर देखा। फिर, सिर धुनते हुए कहा, “पता नहीं, भगवान अब कौन-सा समय दिखाने वाला है ?”
दास जी की कहानियों के दलित पात्र की मजबूती असल में दास जी की मजबूती है। उनका यह मानना बिल्कुल उचित है कि दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाला पात्र कमजोर नहीं हो सकता। बिहार और झारखंड में ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हैं जिन्होंने यह साबित भी किया है। वे उदाहरण ही दास जी को ऐसे पात्र गढ़ने का संबल दिया होगा और दास जी स्वयं भी ऐसे ही एक मजबूत और प्रभावी व्यक्तित्व के धनी हैं। इसलिए उन्हें ऐसे चरित्र गढ़ने और उसे संवारने में किसी दूसरे को देखने की जरूरत नहीं पड़ी होगी। वास्तव में आज दलित समाज को ऐसे ही मजबूत पात्रों की आवश्यकता है जो उन्हें और अधिक मजबूत करेंगे और हमारे कल को बेहतर बनाएंगे। संग्रह में दो और कहानियांँ हैं – ‘जनाक्रोश रैली’ और ‘सींक’। ‘जनाक्रोश रैली’ कहानी को तोते और मैना के माध्यम से कहलवाया गया है। कहानी एक जनाक्रोश रैली से आरंभ होता है जो वास्तव में जनाक्रोश न होकर कुछ नेताओं का सत्ता तक पहुँचने का अवसर है और वे इस अवसर का भरपूर लाभ भी लेना चाहते हैं, पर परिस्थिति ऐसी बनती है कि वास्तविकता सबके सामने आ जाती है। लोग नेताओं को अकेले छोड़ अपने घर की राह लेते हैं। ‘सींक’ कहानी नशे की लत से छुटकारा पाकर बेहतर जीवन की शुरुआत करने वाले एक युवक की कहानी है। संग्रह की सभी कहानियाँ यथार्थ की धरातल पर कसी हुई और बेहतर भविष्य की ओर ले जाने वाली है, जो न केवल दलित समाज को बल्कि पूरे भारतीय समाज को एक बेहतर दिशा देंगी।
आनंद प्रवीण, पटना।
छात्र, पटना विश्वविद्यालय
सम्पर्क- 6205271834