#दर्पण
दर्पण हूँ,झूठ बोलना जानू ना।
खुद जाँचती,किसी का बोलना मानूँ ना।
लोगों को आईना दिखाती,सजीव तस्वीरें चित्रित करती।
राज़ को राज़ रखती,राज़ खोलना जानूँ ना।
दर्पण हूँ, झूठ बोलना जानूँ ना।।
कोई मुझे शयनकक्ष में आश्रय देता तो
कोई रखता सज्जा-गृह में।
कभी मैं दीवारों की शोभा बढा रही होती तो
कभी गुसलखाने में।
कोई घँटों निहारता मुझे तो
कोई क्षण में तोड देता।
हर चेहरे की मै अर्पण हुँ,
खुश करती सबको,दिल तोडना जानूँ ना।
दर्पण हुँँ,झुठ बोलना जानूँ ना।।
सत्य को सत्य और झूठ को झूठ
अंकित करती।
बनावटीपन से दुर हूँ,सटीक विश्लेषण करती।
निश्छल हूँ,छल करना जानूँ ना।
दर्पण हूँ,झूठ बोलना जानूँ ना।।
द्वारा:-Nagendra Nath Mahto
मौलिक रचना।
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स्वरचित कवि,गीतकार,
संगीतकार व गायक :-Nagendra Nath Mahto.
All copyrights :-Nagendra Nath Mahto.