दर्पण
देख देख मानव का चेहरा,
अब दर्पण भी मुस्काता है।
सर्वश्रेष्ठ है यही धरा का,
जो अपनों को भरमाता है।
मुझमें देख लगाए मुखौटे,
मेरे सामने ही इतराता है।
देख सजावट ऊपर की इसकी,
मेरा मन घबराता है।
है चढ़ाता पालिश कालिख पर,
सत्य पर स्याह लगाता है।
अपने वाचाली चालों से,
यह कहाँ सुधर ही पाता है।
दर्पण में भी लगी है पालिश,
वह सत्य को साँच बताता है।
गोरा गोरा, काले को काला,
बस सबको सत्य जताता है।
समाजी तेलों से देखों,
मानव जब चाल बदलता है।
तो भी दर्पण जमीं धूल से,
चेहरा सत्य दिखाता है।
सत्य सहन न करता नर जब,
दर्पण पर प्रहार जमाता है।
हो चाहे सौ टुकड़े दर्पण के,
सौ बार ही सत्य दिखाता है।
कहता दर्पण मैं ना बदलता,
तेल/आंधियों के धूल से।
तुम तो चेहरे बदल देते हो,
लालच में नोटों के फूल से।
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अशोक शर्मा,कुशीनगर,उ.प्र
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