“दर्द”
जज़्बातों की नर्म चादर लपेटे,
लफ्जो के तकिये पे लेटे,
करवटें बदलते रहे ताउम्र,
हौसलों को आगोश में समेटे,
रूह पर पहरे लगे हैं,
ज़ुबां भी खामोश है ,
धधकते शोले नज़र के,
आंख के आब से बुझे हैं ,
अरमां टूटने लगे हैं ,
घाव रिसने लगे हैं ,
दर्द उन्माद बनकर ,
खामोशियाँ तोड़ने लगे हैं|
……निधि…