दर्द
ये दर्द तेरा जबसे खुल कर, मेरे सीने मे पलने लगा।
मेरे सुकूं का जाम क्यों, नज़रों मे तेरे खलने लगा।।
ले बना एक जाम तू, मुझ खातिर भी साकी दर्द का।
मेरे पिछले हर ज़ख्मों का, अब नशा उतरने लगा।।
दिन के उजाले में है अब क्यूँ, रात के जैसा असर।
क्यों सूरज छिपने को ऐसे, बादलों में मचलने लगा।।
एक छलांग काफी थी मेरी, चांद को छूने के लिए।
पर देख शहर की आबो हवा, दिल मेरा दहलने लगा।।
जो खिलाती थी निवाले, अपनी थाली से निकाल।
अब उसी थाली की रोटी, टुकड़ो में बदलने लगा।।
अपने अपनो से जले तो, इसमे हुई नई बात क्या।
आकाशी परिन्दों का पर, हवाऐं खुद कतरने लगा।।
सोचता हूँ अंजाम क्या, होगा ऐसे में नए दौर का।
ला पिला एक और जाम, देख दर्द छलकने लगा।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित १७/०९/२०२०)