दर्द है मैं को मैं की
कहता मैं, मैं कितना तरल,
सरस शान्त और हूँ शीतल।
काया कल्प तो मैं करता हूँ,
हमको उतारो तुम भीतर।
कहीं गम तो कहीं दर्द को,
आधा या पूरा मैं हरता हूँ।
खुशियों के आँगन में भी मैं,
चार चाँद तो मैं करता हूँ।
शुरुर मेरा होश उड़ाये,
मैं जग में भी दर्द बढ़ाये।
बेफिकर करे गलियों में,
कहीं नाले में मैं नहलाये।
और कहीं श्वान मिल जाये,
मुख में पुनः जलधार करे।
मैं का रंग चढ़ा इतना कि,
वह समझे भव पार तरे।
ज्ञान चक्षु जब खुले सबेरे,
ढूढ़े मान पुराने लय की।
खूब तड़पता कितना खोया,
देखो दर्द है मैं को मैं की।