दर्द बेटी का
हाये प्रभु क्यों मुझे लड़की बना
आपने भेजा इस पापी संसार में।
जहाँ लोग गूंगे बहरे बने रहते हैं
इज्जत लूट ली जाती भरे बाजार में।
जन्म से लेकर बुढ़ापे तक
हवस के पुजारी पीछे पड़े रहते हैं।
जिस राह से भी निकलूँ मैं
उसी राह में छेड़ने के लिए खड़े रहते हैं।
कसी जाती हैं फब्तियाँ मुझ पर
कोई नमकीन कहता है कोई फीकी।
किसी की नजर मेरी छाती पर तो
किसी की कमर पर रहती टिकी।
कोई फुलझड़ी तो कोई माल कहता है
कोई देखते ही कुटील मुस्कान देता है।
जब भी होता है आना जाना भीड़ में
कोई मनचला यहाँ वहाँ चुटकी काट लेता है।
हर कोई कहता अपने दोस्तों से
मैं इस कली को कली से फूल बनाना चाहता हूँ।
यार कुछ भी करना पड़े मुझे
बस इसे एक रात के लिए पाना चाहता हूँ।
जब भी करती हूँ इनका विरोध मैं
देखी नहीं सती सावित्री कह मुझे चालू कहते हैं।
कोई उन मनचलों को कुछ नहीं कहता
बन तमाशगीर लोग तमाशा देखते रहते हैं।
अपने घर वालों को कहती हूँ तो
वो भी मुझे सावधानी बरतने की हिदायत देते हैं।
कहकर घोर कलयुग आ गया वो चुप हो जाते हैं
ऐसे चुप रहकर वो भी मनचलों की हिमायत लेते हैं।
अब तो क्या घरवाले क्या बाहर वाले
मुझे तो हर किसी से डर लगने लगा है।
हे मेरे प्रभु तुमसे क्या छिपा है तुम्हें सब पता है,
हर कोई खा जाने वाली नजरों से घूरने लगा है।
ये दुनिया वाले भी बड़े खराब हैं “सुलक्षणा”
ऊँच नीच होने पर लड़की को ही दोषी ठहराते हैं।
इज्जत लड़की की नहीं मनचलों की गयी,
झूठी मर्दानगी के बोझ तले दबे सच को नहीं अपनाते हैं।