दर्द की आवाज़ हूँ।
ज़िन्दगी
ख़ुशी की मुसलसल तलाश है
फिर मिलती नहीं है क्यों
जब इतनी पास है?
मिल जाये भी तो
मेहमां होती है कुछ पलों की
बुझती ही नहीं
यह कैसी प्यास है?
पसरे हुए सन्नाटे की
एक उदास शाम
लगा
जीवन का
है बस यही अंजाम!
तभी
बालकनी में खिले
गुलाब ने आवाज़ दी
पास आओ
आज में भी उदास हूँ
कांटो में बसर करके
खुशबु लिए हूँ अंजुरी में
चुराने न कोई आया
महबे यास हूँ!
लिखता रहा हूँ मैं भी
गीत प्यार के
मधुमास के,श्रृंगार के
,मनुहार के
क्षण भर हवा में तैरे,
वादी में खो गए
उनके आंसू मगर
सारी बात कह गए।
आज खुश हूँ, मैं इस लिए
लाता हूँ रोज़ खुशबू
किसी और के लिए
गीतों में पिरो देता हूँ
पराये दर्द जो जिए!
किसी मज़लूम के सलीब को
उठा लेता हूँ कांधोपर
तो छू लेती है ख़ुशी
मेरे करीब आकर
कानो में कहती है
धीरे से गुनगुनाकर
कहाँ ढूंढने चले थे,
हर दम तो पास हूँ
ख़ुशी नाम है मेरा
सच में
दर्द की आवाज़ हूँ।
सुनील पुष्करणा