दर्द का सैलाब
दर्द दिल का कुछ इस हद से बढ़ा,
आंखों से लहू का सैलाब बन बहा।
दिखाई देने लगी हर शय लहू से रंगी ,
कतरा कतरा आंसुओं का जब बहा ।
यह लहू था मेरे घायल अरमानों का,
जो जालिम तकदीर के हाथों से बहा ।
यह लहू मेरे सुनहरे ख्वाबों का भी था,
जो टुकड़े होकर आंसुओं के संग बहा।
संगदिल ज़माने ने बहुत सताया मुझे,
जिसकी वजह से खुद्दारी का लहू बहा ।
इस दर्द की कोई इंतेहा नहीं न जुल्म की,
टुकड़ों में मेरी सारी हस्ती का लहू बहा ।
एक लहू ही है दुनिया में जो सबसे सस्ता ,
बेजुबान और मासूम इंसानों का ही बहा।
काश ! सुनले खुदा हम मासूमों की गर,
इसी लहू में डूबकर मीट जाए यह जहां।