दरवाज़ें ~
दरवाज़ें
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देखा, देखा तुमने इन गलियों में,
कौन दौड़ रहा है,किसके पीछे,
कभी बंदूक चलाता, कभी तलवार म्यान से खींचे,
वो चिल्ला रहा बचाने को,हाथ फैलता मदद मांगने को,
घर हज़ार थे और लोग थे पांच हज़ार,
कहने को सब हो सकते थे उसके मददगार,
पर कोई ना आया सुनकर ये आवाज़ें,
क्योंकि सबने बंद कर लिए थे अपने,
घर, दिल, दिमाग़ और इंसानियत के दरवाज़े।
अरे वो देखो कुछ नामर्द,
ले गए किसी मासूम को खेत में,
वो चिल्ला रही है रो रही है,
कोई बचा ले अरे कोई तो देख ले,
लील जाएंगे वो उसकी अस्मत,
अपने वहशीपन के आगोश में,
कौन कहता है, रास्ता सुनसान था,
कितनी ही गाड़ियां निकलीं थीं वेग में,
पर कैसे,कैसे सुनता कोई उस अबला की आवाज़ें,
क्योंकि बंद थे कार, व्यवहार,संस्कार और ….
इंसानियत के वो दरवाज़ें…..
©ऋषि सिंह “गूंज”