दया धर्म का मूल है
दया धर्म का मूल कहने का अभिप्राय भगवान ने करुणा व दया की भावना मनुष्य को इसलिए दी है ताकि यह संसार बना रहे । न्याय व धर्म की रक्षा करना सदा से मानवीय धर्म है। दयाभाव से विहीन मनुष्य भी पशु समान ही होता है। हृदय में उत्पन्न दयाभाव को स्वयं की स्वार्थ सिद्धि हेतु परिवर्तित करने की कामना से अधिक दुखमय और दयनीय कुछ नहीं है।
वास्तव में दया एक गुण है दया के बिना कोई धर्म नहीं रहता। तुलसीदास जी ने कहा है… ‘
धर्म दया का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िए, लगि घट में प्राण ।।
अर्थात धर्म हमें दया करना सिखाता है और अभिमान से पाप भाव पलता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं, विपत्ति के समय में घबराकर हार न माने। बल्कि ऐसी स्थिति में अपने अच्छे कर्म, सही विवेक और बुद्धि से काम लेना चाहिए। क्योंकि मुश्किल समय में साहस और अच्छे कर्म ही आपका साथ देते हैं।
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
धर्म के चार चरण बताए गए हैं। सत्य, दया, तप और पवित्रता।
जिसका अर्थ है धारण करना अत: धर्म का मूल अर्थ है जो धारण किया जाए अथवा जो व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को धारण करता है। यह सामान्य रूप से पदार्थ मात्र का वह प्राकृतिक तथा मूल गुण है, जो उसमें शष्वत रूप से विद्यमान रहता है। किसी वस्तु का वस्तुत्व ही उसका धर्म कहा जाता है
तुलसीदास जी के दोहों से भी हम इसके बारे में समझ सकते हैं-
तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।
साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक।१।
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।२।
आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह।३।
कबीर के दस दोहे जिंदगी का असली ज्ञान देते हैं,
जीवन की महिमा बताते हैं:-
जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय ।
मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय ।।
(जीते जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरना जाने तो। मरने के पहले ही जो मर लेता है, वह अजर-अमर हो जाता है। )
मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत ।
मूये पीछे उठि लगा, ऐसा मेरा पूत।।
(भूलवश मैंने जाना था कि मेरा मन भर गया, परन्तु वह तो मरकर प्रेत हुआ। मरने के बाद भी उठकर मेरे पीछे लग पड़ा, ऐसा यह मेरा मन बालक की तरह है।)
भक्त मरे क्या रोइये, जो अपने घर जाय ।
रोइये साकट बपुरे, हाटों हाट बिकाय ।।
(जिसने अपने कल्याणरुपी अविनाशी घर को प्राप्त कर लिया, ऐसे संत भक्त के शरीर छोड़ने पर क्यों रोते हैं? बेचारे अभक्त – अज्ञानियों के मरने पर रोओ, जो मरकर चौरासी लाख योनियों के बाज़ार में बिकने जा रहे हैं।)
मैं मेरा घर जालिया, लिया पलीता हाथ ।
जो घर जारो आपना, चलो हमारे साथ ।।
(संसार – शरीर में जो मैं – मेरापन की अहंता – ममता हो रही है – ज्ञान की आग बत्ती हाथ में लेकर इस घर को जला डालो। अपना अहंकार – घर को जला डालता है।)
शब्द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल ।
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल।।
( गुरुमुख शब्दों का विचार कर जो आचरण करता है, वह कृतार्थ हो जाता है। उसको काम क्रोध नहीं सताते और वह कभी मन कल्पनाओं के मुख में नहीं पड़ता।)
जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय ।
काया माया मन तजै, चौड़े रहा बजाय ।।
( जब तक शरीर की आशा और आसक्ति है, तब तक कोई मन को मिटा नहीं सकता। इसलिए शरीर का मोह और मन की वासना को मिटाकर, सत्संग रूपी मैदान में विराजना चाहिए।)
मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्वास।
साधु तहाँ लौं भय करे, जौ लौं पिंजर साँस।।
( मन को मृतक (शांत) देखकर यह विश्वास न करो कि वह अब धोखा नहीं देगा। असावधान होने पर वह फिर से चंचल हो सकता है इसलिए विवेकी संत मन में तब तक भय रखते हैं, जब तक शरीर में सांस चलती है।)
कबीर मिरतक देखकर, मति धरो विश्वास।
कबहुँ जागै भूत है करे पिड़का नाश।।
( ऐ साधक! मन को शांत देखकर निडर मत हो। अन्यथा वह तुम्हारे परमार्थ में मिलकर जाग्रत होगा और तुम्हें प्रपंच में डालकर पतित करेगा।)
अजहुँ तेरा सब मिटै, जो जग मानै हार।
घर में झजरा होत है, सो घर डारो जार।।
( आज भी तेरा संकट मिट सकता है यदि संसार से हार मानकर निरभिमानी हो जा। तुम्हारे अंधकाररूपी घर में को काम, क्रोधा आदि का झगड़ा हो रहा है, उसे ज्ञान की अग्नि से जला डालो।)
सत्संगति है सूप ज्यों, त्यागै फटकि असार ।
कहैं कबीर गुरु नाम ले, परसै नहीं विकार ।।
(सत्संग सूप के ही समान है, वह फटक कर असार का त्याग कर देता है। तुम भी गुरु से ज्ञान लो, जिससे बुराइयां बाहर हो जाएंगी।)
अर्थात अपने शरीर में प्राण रहने तक दया भाव हमें नहीं त्यागना चाहिए ।अतः विपत्ति के समय हार नहीं मानना चाहिए। आपको अपने अच्छे कार्य सही विवेक और बुद्धि से काम लेना चाहिए। क्योंकि जहां दया होती है वहाँ धर्म भी होता है और जहां लोभ होता है वहां पाप होता है। अतः दया और क्षमा को अपनाना चाहिए। लोभ और क्रोध को त्यागना चाहिए
वास्तव दया एक मानवीय गुण है।ईश्वर से भी हम यही तो मांगते हैं कि हे प्रभु हम पर आपकी दया दृष्टि बनी रहे। प्रभु भक्ति मात्र से संतुष्ट होकर कष्टों का निवारण करते हैं।
इस तरह हम कह सकते हैं कि दया ही धर्म का मूल है।
(विभिन्न स्रोतों/कथाओं से साभार)
आलेख/प्रस्तुति-
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश