दंगा_(चार)
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भ्रांति कुछ नहीं
नहीं कोई संशय ।
मैं आहत,
मेरे मन का तन है
पड़ा क्षत-विक्षत।
चेतना शुन्य सी पड़ी हुई।
वेदना विराट है खड़ी हुई।
विचलित होता हूँ सोच-सोच।
मित्रों ने ही खाया क्यों नोंच-नोंच।
दंगे का मकसद जब पूछा।
उसने हमला कर बैठा
उत्तर, कुछ था नहीं सूझा।
मन में मेरे आक्रोश गहन।
उससे ज्यादा है बड़ा रुदन।
जिन हाथों से होता था नमन।
उसमें असि,बंदूक तथा थे बम।
जो चेहरे कल थे मित्र मेरे।
कातिल बन आकर हुए खड़े।
बाहों में भर हम अपनापन,
कल तक कहने को थे आतुर।
इस क्षण उन ही हाथों में,
विध्वंस,मृत्यु था बना असुर।
वह अविवेकी था या था असंस्कृत!
सभ्यता किन्तु, शर्माशर हुई। ।
सदियों का सनातन शांति-मंत्र
कातिल के लिए बेकार हुई।
उससे मनुष्य होने का आज
गौरव ले छीन हर वह समाज
जिसने सर पर है बांध रखा
मानवता का बेदाग ताज।
दंगे का प्रयोजन था आतंक
दंगे का प्रयोजन भय पैदा करना।
दंगे का प्रयोजन तो था न विरोध
केवल दहशत पैदा करना।
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