त्याग दो
त्याग दो,
त्यागना पड़े तो उन तमाम सुखों को तुम दो त्याग,
जो बेड़ियाँ बन कर पाँव में हैं पड़े,
और बन कर रुकावट विकास की,
रास्ते में हैं खड़े,
जो झांकने नही देते तुम्हें अपने अंदर,
जो देख नही सकते दूसरों के दर्दों और तकलीफ़ों को,
जो समझ नही सकते जूझने के अन्तर्द्वन्द्वों को,
तो त्यागना पड़े तो उन तमाम सुखों को तुम दो त्याग,
जो सुख के नाम पर बना रहे तुम्हें पंगु,
आगे सोचने के तुम्हारे तमाम रास्तों के हैं अवरोध,
जो सिखा रहे तुम्हें केवल स्वार्थहित जीना,
जो चख़ने नही दे रहे तुम्हें मेहनत का पसीना,
तो त्यागना पड़े तो उन तमाम सुखों को तुम दो त्याग,
यह सुख जो क्षणिक है, देंगे नही तुम्हें कभी भी शांति,
यह कल्पित सुख बढ़ा रहे केवल भौतिक भ्रांति,
सुख की परिभाषा है एक शून्यता, विरक्ति और पूर्णविराम,
यह सुख दे रहा महज़ अल्प विश्राम,
तो त्यागना पड़े तो उन तमाम सुखों को तुम दो त्याग,
जहाँ परहित आए और परजन की पीड़ा मन को व्यथित कर जाए,
मानव जीवन उदेश्य समझ आ जाए,
जहाँ परमार्थ की हो प्राप्ति,
बस वही सुखों और मुक्ति का द्वार तुम मान लो,
हो सके तो वहाँ इन तमाम सुखों को तुम त्याग दो,
त्याग दो……