तेरी याद आज फिर चश्म-ए-तर कर गई है
तेरी याद आज फिर चश्म-ए-तर कर गई है
रवाँ इक कूज़े से समंदर कर गई है
दबे-पाँव चली आई इक हसरत दिल में
उजड़ी हुई बस्ती को शहर कर गई है
करती हूँ अता शुक्रिया हर उस घड़ी का
तेरा जलवा जो मेरी नज़र कर गई है
सहारा तो लिया या-खुदा बेल ने मगर
उस खंबे को देखिए शज़र कर गई है
यूँ गिरती हैं बिजलियाँ आँखों से तेरी
बुझी हुई राख को भी शरर कर गई है
और किसी हालत का अब ख़ौफ़ क्या करें
मुफ़लिसी जब बाख़ूबी बसर कर गई है
घड़ी खुशियों की रही हो या गम की ‘सरु’
किसके यहाँ क़यामत तक ठहर कर गई है