तेरा दुपट्टा
आज कमरा एक भीनी खुशबू से भरा था
पर खबर नहीं थी कि हवा में क्या घुला था
मैंने मेज की दराज टटोली
फिर अंदर की कुछ किताबें खोली
मैं कुछ देर खुद पर हंसा था
किताबों को कुछ तो पता था
फिर मेरी नजर घड़ी पर पड़ी
यह शरद की एक समय पर थी अड़ी
ज़ेहान में खिचने लगी थी कुछ स्मृति की रेखा
फिर मैंने अपनी डायरी की ओर देखा
यह मद्धम खुशबू आ रही थी उसी डायरी से
तेरे दुपट्टे पर लिखी हुई शायरी से
याद है मुझे तुमने दिया था
अपना दुपट्टा शरद की उस भोर में
जब मैं थोड़ा और असहज था
शरद की शैतानियों से
जब छेड़ रही थी शर्द हवाएँ
किसी शैतान बच्चे की तरह
जब नींद आ आकर लौट जा रही थी
आंखों की दहलीज से, ख्वाब बैठे रहे मुंडेर पर,
उसी दुपट्टे से आ रहा था
परिंदों के चहचहाने का शोर,
और हवा में घुली हुई रात रानी की खुशबू
जो मैंने रख दिया था डायरी के पन्नों के बीच