** तेरा जाना भिगो गया मेरे मन का कोना **
डॉ अरुण कुमार शास्त्री — एक अबोध बालक —अरुण अतृप्त
** तेरा जाना भिगो गया मेरे मन का कोना **
सुर के साज बिगड़ जाते हैं
जब जब कोई
गीतों संगीत के सु र कार
गुजर जाते हैं.
सबके मन, मन ही मन में
तड़प तड़प कर रह जाते हैं
सुर के साज बिगड़ .जाते हैं।।
ऐसा तो वरदान किसी को
दिया नहीं दाता ने हम को
जीवन के अनुभव से सीखा
हमने तुमने सबने ही देखा
आज का जन्मा कल को सिधारा
जो आया था वो चला है
पीछे उसके चला ज़माना
उसने तो था ही जाना
उसको तो इक दिन था जाना
पर
सुर के साज बिगड़ जाते हैं
जब जब कोई
गीतों संगीत के सु र कार
गुजर जाते हैं.
सबके मन, मन ही मन में
तड़प तड़प कर रह जाते हैं
सुर के साज बिगड़ .जाते हैं।।
क्या आगे और क्या कोई पीछे
सबकी देखो रेल बनी हैं
सुन ले समझ ले ओ बन्दे
सीख सीख कर करम का बाना
हमने तुमने चला ही जाना
भगत बनो चाहे बनो पुजारी
चोर बनो चाहे तुम साहूकारी
सुर के साज बिगड़ जाते हैं
जब जब कोई
गीतों संगीत के सु र कार
गुजर जाते हैं.
सबके मन, मन ही मन में
तड़प तड़प कर रह जाते हैं
सुर के साज बिगड़ .जाते हैं।।
जो जो खोया जो कमाया
लेना देना सब ही गंवाया
दुःख की इस नगरी में भैया
ऐसा ही है झोल झमेला
खाया पिया और तन पर पहना
इतना ही तो स्वाद लिया हैं
इसके आगे कुछ भी नहीं है
इसके आगे कुछ भी नहीं है
सुर के साज बिगड़ जाते हैं
जब जब कोई
गीतों संगीत के सु र कार
गुजर जाते हैं.
सबके मन, मन ही मन में
तड़प तड़प रह जाते हैं
सुर के साज बिगड़ .जाते हैं।।
बड़े बड़े राजे महाराजे
सबका सुन ले हाल यही हैं
तू तो रहा अपनी झोपडी
उनके तो सब महल यहीं हैं
उनके तो साब महल यहीं हैं
सुर के साज बिगड़ जाते हैं
जब जब कोई
गीतों संगीत के सु र कार
गुजर जाते हैं.
सबके मन, मन ही मन में
तड़प तड़प रह जाते हैं
सुर के साज बिगड़ .जाते हैं।।