तृप्ति
तृप्ति ही तो नहीं मिलती
बस यही तो कमी है,
तृप्ति मिल जाए तो
हम खुद ही खुदा हो जाएं।
थोड़ा और का लालच
हमारा सुख चैन छीन बैठा है,
तृप्ति को हमारे पास
आने तक नहीं देता है।
तृप्ति भी बेबस लाचार है
हमारे पास आने को तैयार हैं,
पर हमारा लालच
उसे आने नहीं देता,
हमारे और तृप्ति के बीच
ये थोड़ी और की चाह
दीवार बन गई है।
हम तो लाचार, बेबस हैं
और तृप्ति बड़ी उम्मीद से
हमें देख रही है,
हमारी बेबसी देख
हैरान परेशान हो रही है,
पर इस उम्मीद में
हमें निहार रही है
जैसे उसे ही मुझसे मिलने की
चाहत बड़ी है।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश