“तू संगीत मेरा मैं प्रगाढ़ अनुरागी”–प्रेम विरहा
चन्दा की चमक तेरा अप्सरा यौवन
पुष्पित आँचल जैसे विभोर मधुवन
तू है नीली झील में हंसिनी का रूप
तू निकलती है बनके संदली सी धूप
सुर मधुर वाणी तेरा चँचल सा मन
जैसे अजन्ता की किसी मूर्त सा तन
रोम रोम बन बैठा मेरा निरा वैरागी
तू है संगीत मेरा मैं प्रगाढ़ अनुरागी……..
मैं ज्येष्ठ तपन तू बरसाती सावन
प्रीत जगे मेरा हर दिन मनभावन
मैं अविरल बादल तू बसन्ती धूप
निष्ठा में जुगलती बैशाखी का रूप
तुझे देख देख नित मैं स्वप्न सजाऊँ
तू मीत मेरा आ तुझे तन से लगाउँ
हैं शोखियाँ मेरी तेरे बिन भीगीभागी
तू है संगीत मेरा मैं प्रगाढ़ अनुरागी……..
मेरे निकट नहीं तू विकट तन से दूर
मेरा मन हो गया अनन्त नशे में चूर
तू विशिष्ट सी तरुणी मैं निरा तरुण
कैसे कटे दिन मेरे जतन भी करुण
मेरी तुझसे लगन बस तुझ तक जाऊँ
कैसे तुझें मैं स्नेही मनोभाव दिखाऊँ
तू सुर तान मेरा वीणा मैं एक रागी
तू है संगीत मेरा मैं प्रगाढ़ अनुरागी……
तू मोतियों में जड़ा अनमोल रतन
ह्रदय से करूँ तुझें पाने को जतन
मेरे कण कण में तू हो गयी व्यापी
क्या छवि मेरी तेरे बिन अनुतापी
तेरे गहन मनमोहक रंग में खो जाऊँ
सरस सरल आचार माथे मैं सजाऊँ
भोर रजनी मेरी ये नैना जागी जागी
तू है संगीत मेरा मैं प्रगाढ़ अनुरागी……
स्मृति में बहते मेरे यथार्थ अंसुवन
मेरी एक अभिलाषा तेरी एक छुवन
ऐ मलय समीर मेरा सन्देशा ले जा
ये मेरी कथित चुभन मेरा मन चिंतन
वो ललिता लालिमा लट बिखराये
मेरी विरह हरे रमणी मन पिघलाये
वृतांत कथनी उस बिन आधी आधी
वो संगीत मेरा मैं प्रगाढ़ अनुरागी…….
राह तकते तकते ये तन सूख गया
मेरा किंचित रुधिर मन सूख गया
हर गीत में प्रिय प्रियतमा दोहराऊं
तेरी प्रीत सुंदरतम ललाट सजाऊँ
मेरी टीस नित नित बस बढ़ती जाए
तू आए निकट मेरी ये करुणा घटाए
मेरा अंतर्मन हो गया देख बागी बागी
तू है संगीत मेरा मैं प्रगाढ़ अनुरागी…….
——-अजय “अग्यार