तू गुलसिता वो बागबांँ तेरा..
ये ज़मीं और ये मकाँ तेरा।
भूल तेरी न कुछ यहाँ तेरा।।
कर सके जो भला किसी का तू।
चार दिन का है ये समाँ तेरा।।
बंद कर दे ये काले धंधें तू।
ये किराए का है दुकाँ तेरा।।
नफरतों के न बीज तू बोना।
जो किया प्यार तो जहाँ तेरा।।
पंख परवाज़ को तू खोल जरा।
होगा कल फिर ये आसमाँ तेरा।।
दो ज़हाँ का है एक ही मालिक ।
तू गुलिश्तां वो बागबांँ तेरा।।
“कल्प” डरने की बात अब क्या है।
जब ख़ुदा ख़ुद है पासबाँ तेरा।।
✍?अरविंद राजपूत ‘कल्प’
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