तू कैसा रिपुसूदन
मन को उड़ना नहीं सिखाया
थिर रह करता क्रन्दन
रिपु विचरें सानंद धरा पर
तू कैसा रिपुसूदन !
मैं हूं तेरी शरण, शरण में
मन को शांति न मिलती
द्रवित न होते देख तुझे, अब
दृग से आह निकलती
करुणा कलित हृदय करता है
तेरी याद निरन्तर
पीड़ाएं मानव समाज की
कैसे हों छू-मंतर ?
जगदाधार कहाता है तू
दीनबंधु जग माने
तू ही बता कि कैसे आए
तेरा होश ठिकाने ?
नरभक्षी हो गई मनुजता
पसर रही है पशुता
जाग जाग जल्दी से भर दे
तू जन-मन में मृदुता
कवि-मन को उड़ना सिखला दे
कर रिपुओं का मर्दन
फिर से सत्य-अहिंसा-साहस
को दे त्वरित समर्थन ।
महेश चन्द्र त्रिपाठी