तुम सिर्फ तुम,,,
कितनी हल्की हो जाती हूँ ,
जब सौंप देती हूँ तुम्हें मेरा ‘मै’ ,
तब बढते चले जाते हैं कदम,
उस रास्ते पर
जो सामने दिखता है,
क्योंकि फिक्र नहीं अब,
हार-जीत की,
‘मै’ जो नही अब पास ,
वो तो तुम हो, सिर्फ तुम
कर्ता तो तुम होते हो ना तब ,
‘इन्दु’ तो चमकता है
तुम्हारी रोशनी से ही ना अब।
डॉ इन्दु