तुम मुझमें अंगार भरो
तुम मुझमें अंगार भरो।
तुम मुझमें श्रृंगार करो।।
चाहे तुम देखो मुझ में।
अपने जीवन की मधुशाला।।
टूट रहा जो भीतर से।
क्या उसको दिखलाओगे?
लिख दे तू कुछ ऐसा कि।
पढ़कर हो जाए मतवाला।।
क़ैद हूं मैं अपनी ही ज़ात में।
श्रृंगार-हार ना रास आए।।
न भाये यह जीवन फिर भी।
पहनी हूँ सांसों की माला।।
तू आयेगा आस लगी है यह।
ना आयेगा चूर हो जाएगी।।
कलम मेरी नहीं रुकती है।
बाद किसी और के गुण गाएगी।।
कल तो कल है आज अभी।
जो रुक पाओ तो बात करो।।
वरना हमको माफ करो।।
‘कीर्ति’ बंद है पिंजरे में।
जिसकी न चाबी है न ताला।।
कुछ नया नहीं, सब वही पुराना है।
यह जो लिख रहा है तू, दीवाना है?
मन का जो हो भी जाए तो।
मन फूट-फूट कर गाये जो ।।
आवाज़ न बाहर आए मगर।
मन मरता जाता है हर पहर।।
क्यूँ रोकती है खुद को!
क्यूँ लेती है तानों का भार!!
जग की आदत है उनका क्या,
सपना टूटा है! अब तो जाग!!!
– ‘कीर्ति’