तुम बनाते हो नये रोज बहाने कितने
तुम बनाते हो नये रोज बहाने कितने
और फिर उनसे ही बनते हैं फसाने कितने
मिल नहीं पाते अगर एक भी दिन तुमसे हम
ऐसा लगता है गये बीत ज़माने कितने
एक दिन होगी मुलाकात हमारी उनसे
आस में बीत गए साल न जाने कितने
फँस ही जाते हैं यहाँ भोग विलासों में हम
ज़िन्दगी जाल बिछा डालती दाने कितने
लोग चलते हैं मुहब्बत की डगर पे हँसकर
चाहें सहने पड़े पग पग पे ही ताने कितने
नींद बनना ही हमें होगा तुम्हारी अब तो
हैं अभी ख्वाब हसीं उसमें सजाने कितने
‘अर्चना’ वक़्त यहाँ पर मिला है थोड़ा सा
लक्ष्य जीवन में मगर हमको हैं पाने कितने
11-08-2020
डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद