तुम आ न सके
तुम आ न सके
मैं जा न सकी
तुमसे मिलने वहां
जहां हमे मिलना था
जाड़े गर्म धूप में
हरी -मखमली दूब पर बैठकर
तुमसे तुम्हारी बातें सुनने ।
पापा ने तुम्हें बुलाया था
मां ने दावत पर बुलाया था
फिर भी
तुम नहीं आए
वे मायूस हुए
मैं गमगीन हुई थी
कि तुम निश्चय ही आओगे
मेरा हाथ मांगने ।
मैं राह तकती रही
पलकें बिछाए
(पलकें बिना गिराए)
गुलाब की कोमल पंखरिओं से
रंगोली बनाए
कभी इंतजार
कभी इंतहान
कभी परीक्षा
कभी समीक्षा
आलोचना तो मुझे आती नहीं
वह भी तुम्हारी !
तुम्हारे क्या कहने ।
कितनी शिद्दत से
मैं तैयार हुई थी
कितनी जद से
मां ने तैयारी की थी
न तुमने मुझे देखा
न मैंने तुम्हें निहारा
लेकिन आए भी:
तो सपने में
चुपके -चुपके
हौले -हौले
मुझे जगाने
बाहों में लेने
कानों में मिश्री देने
जबकि तरस रही थी
तुम्हारे मुख से सुनने को
“तुम सुंदर हो
तुम अच्छी हो
तुम्ही बस तुम्ही हो”
तुम्हारा आकर्षण
ले आता है मुझे
तुम्हारे आंखों के सामने
जैसे मुरली बजाई हो
घनश्याम ने ।
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@मौलिक रचना -घनश्याम पोद्दार
मुंगेर