“तुम्हे बुनते बुनते”
तुम्हे बुनते बुनते
स्वयं कितनी उधड़ गई
देखो ना, पता ही नही चला।
एक एक धागा खुलता चला गया
और मैं बिखरती चली गई।
तुमको तो रूप मिल गया
और मैं अपना स्वरूप खो दी
देखो क्या से क्या हो गई।
तुम तो खुले हुए थे
और न जाने कितने उलझे हुए भी
धागा धागा सुलझाया मैने
फिर जाकर बुन पाई मैं
तुमको पता भी नही चला
और मैं खुलती-उलझती चली गई।
© डा० निधि श्रीवास्तव “सरोद”