तुम्हें देखकर
रात पूरी ही गुजर गयी।
बातें जो कहनी थी कहानी बन गयी।
पुनर्जन्म होगा तो सुनाऊँगा।
तुम्हारे गौरव का अहंकार
कितना! क्रूर था बताऊंगा।
मेरा गर्व जो खण्डित हुआ था
उसे जोड़कर दिखाऊँगा।
तुम्हारे प्रेम की परिभाषा में
अधिकार सिर उठाए था।
मैं तो मानवता को
समझ रखा था कि
आत्मा से मिल
उसने इसे स्थिर उठाए था।
हर शासन में संशय क्यों है
आज समझ पाया मैं।
किला टूटने का डर कितना भयंकर है
आज समझ पाया मैं।
प्रजातन्त्र में भी नृप होने का मन
प्रफुल्लित है बहुत।
दण्ड देने का मन,किसी को भी
कुत्सित है बहुत।
दरिद्रता तन से परेशान और दु:खित है।
हर भ्रष्टाचार को प्रसन्नता से गुंफित देख
कुपित है।
विद्रोहों ने दरिद्रता तोड़ा नहीं।
पुरोधा ने नष्ट सब किया
हम वंचितों को यूं ही छोड़ा यहीं।
पारिवारिक व्यवस्थाएँ ही
समाजिक और राष्ट्रीय रूप ले पाते तो
सुख आया-गया नहीं, होता स्थिर।
सब,सब का करते हुए फिक्र आते नजर।
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अरुण प्रसाद