तुम्हें खबर तो है न?
मेरी जिंदगी की किताब के
हर वरक हर हरफ़ हर शिफ़हे पर
तुम्हारी खामोश मौजूदगी
मजबूत दरख़्त सा भरोसा मेरा
तुम हो यहीं कहीं
जिस्म तो दूर है
पर रूहानी एहसास तुम्हारा
हर लम्हा हर पल हर शिम़्त
वहीं मुङा है उस पन्ने का कोना
जहाँ छूटी थी
हमारी अधूरी कहानी
कैसा राब़्ता है ये
कि जब लिखती हूँ
सिर्फ़ तुम्हें लिखती हूँ..
तुम्हें खबर तो है न…?
कि जब पुरजोर कोशिशें भी
हार जाती हैं
तुम्हें पाने की और
नतीज़ा शिफ़र रहता है
तब उम्मीद की लौ
फङफङाती है
मेरी जिंदगानी के स्याह पहलू को
रोशन कर ने को
तुम्हारी बेइंतहा जरूरत है…
तुम्हें खबर तो है न….?
©
अंकिता श्रेष्ठा