तुम्हारी कलम
कलम,
ना उठाने में यकीन है
कैसा यकीन?
यही कि, कोई आपके अंतर्मन में
उन छोटे-छोटे झरोखों से झांकेगा नहीं
उन बिखरी पड़ी चीज़ों के टुटने को सुनेगा नहीं
उन खाली जगहों के शोर को सुन नहीं पायेगा
बिन आवाज के उन आंसुओं को देख नहीं पायेगा
तुम्हारी खामोशी को सुन नहीं पायेगा
हां, यकीन है मुझें
मेरी कलम तुम्हें ये चाबियां कभी नहीं देगी।
पर
तुम्हें स्वयं को मन की कुंजी थमाकर
अंतर्मन में झांकना ही नहीं,
वरन बसेरा करना होगा।
टुटने को धैर्य से सुनना है
उसे समेटना होगा ,
ख़ामोशी को सुनो ज़रा
सूकुन से दोस्ती का तोहफा साथ लाई हैं,
इन खाली अंधेरी गलियों को
निहारना छोड़कर, आगे कदम बढ़ाओ
रोशनी न सही, भोर की किरण तय है।
तुम्हारी कलम
तुम्हारे मन के दरवाजें की
वो चाबी है।