तुम्हारा कुछ न बिगडेगा
न पलकें यूँ झुकाओ तुम हृदय में
प्यार जागेगा,
तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा मनस
अभिप्राय जागेगा।
किसी उपवन की कलिका सी,
तुम्हारी छवि शुचित कमनीय,
नयन चितवन कँटीली अति,
भृकुटि तिरछी तनिक दमनीय।
थिरकती अधर पर मुस्कान सतत
अनुराग जागेगा,
तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा मनस
अभिप्राय जागेगा।
अधर रक्तिम तुम्हारे मृदु,
सरस स्पर्श को उद्धत,
तनिक अनुमति इन्हें दे दो,
प्रतीक्षारत अधिक ये चारु।
दृगों में मद अनूठा अति हृदय प्रिय
भाव जागेगा,
तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा मनस
अभिप्राय जागेगा।
शुचि केश श्यामल बल सघन,
घनघोर घटाओं के मानिंद, .
चितचोर बने जाने कैसे,
समयचक्र के किस पड़ाव पर।
तुम्हारी स्वाँस गति में प्रेम प्रिय
प्रभाव जागेगा,
तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा मनस
अभिप्राय जागेगा।
तुम्हारे मधुर शब्दों का शुचित,
सौष्ठव सदा ही कर्ण-प्रिय अति,
लालित्य का कहना ही क्या,
हो ज्यों किसी निर्झर की सरगम।
चंचला दृष्टि मृगनैनी प्रणय शुचि
भाव जागेगा,
तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा मनस
अभिप्राय जागेगा।
–मौलिक एवम स्वरचित–
अरुण कुमार कुलश्रेष्ठ
लखनऊ (उ.प्र.)
(अरुण)