तुमसे मिला तो फितरत को समझा
मेरे अफ़कारो को तश्हीर मत समझना
मैं खुद जिंदा हूं शब्दों में मोती बनके
फितरत ना देखो जी गुज़रे ज़माने की
आज मैं जलता भी हूं तो ज्योति बनके।।
यही रात थी न, यहीं एक बात थी न
कि मिलकर भी हमें बिछड़ना पड़ा
फितरत शब्द तो ज़माने ने बख्शा है
फिर क्यों जीतकर हमें हारना पड़ा।।
अजीबोगरीब दुनिया की रीत है न जी
जब हम कहें तो सब बकवास लगता है
गर वो कहें तो सबकुछ ख़ास लगता है
शायद यहीं निशानियां होगी फितरत की।।
अगर मैं कहूं कि फितरत को देखा हूं
तो इसमें हैरानी की क्या बात होगी
तुमसे मिला तो फितरत को समझा
अब और इसमें नयी क्या बात होगी ।।
परबतो की रवानियां देखो तो सही
इश्क की जवानियां देखो तो सही
फितरत मौसम का ही इक नाम होगा
पहले अपनी निशानियां देखो तो सही।।
एक तस्वीर था दीवारों पे लटका हुआ
थोड़ा रचा हुआ थोड़ा मिटका हुआ
जब मैंने उससे पूछा कि तुम कौन हो
मेरा फितरत ही मिला जवाब देता हुआ ।।
आंसू को फितरत का नाम ना दो
हरगीज इश्क में ये ईनाम ना दो
कह दो हम वो नहीं,जो टूटकर रोएं
हमें बेवजह बेवफाई का जाम ना दो।।
लगता है फितरत को तुम ना समझे हो
तभी फितरत को तुम फितरत कहते हो
जिस दिन इश्क को तुम समझ जाएंगे
उस दिन फितरत को तुम किस्मत कहोगे।।
नितु साह(हुसेना बंगरा)सीवान-बिहार
अफकार-रचना,तश्हीर-विज्ञापन