‘तुझे अकेले चलते जाना’ (छायावाद)
तू अकेला चल बटोही
तुझे अकेले चलते जाना।
बस केवल इतना समझ ले
कहाँ पर है तेरा ठिकाना।
रास्ता यह बड़ा कठिन है
चलने के दिन लेकिन कम है
दूर तक तुझको है जाना
यह विचार मन में तू कर ले
बहती धारा की तरह बस
आगे को बढ़ते ही जाना।
तू अकेला चल बटोही
तुझे अकेले चलते जाना।
रंग-बिरंगे फूल खिले हैं
सुंदर-सुंदर फूल खिले हैं
हवा में भी घुली सुगंध है
मन को क्यों मोहने लगी है
सुरभि रस का ले आनंद पर
अपनी राह पर चलते जाना।
तू अकेला चल बटोही
तुझे अकेले चलते जाना।
कहीं तो पथ है सुनसान पर
कहीं तो भीड़ है बेतहाशा।
नहीं मिलेगा सहचर साथी
इससे कैसी हो तुझे निराशा
राह में किसको खोज रहा है
व्यर्थ है बस समय गंवाना।
तू अकेला चल बटोही
तुझे अकेले चलते जाना।
दूर अपलक देख रहा क्या
वहाँ नहीं तेरा ठिकाना
जिसे तू लक्ष्य समझ रहा है
वह तो केवल भ्रम का जाला
फिर से डगर अपनी पकड़ ले
तुझे दूर तक चलते जाना।
तू अकेला चल बटोही
तुझे अकेले चलते जाना।
-विष्णु प्रसाद ‘पाँचोटिया’
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