तीसरी राखी
हमेशा की तरह सावन
आ जाता है नियत समय पर
राखी का त्योहार लेकर
और मैं….
मैं हमेशा की तरह हर बार
मैं खरीदती हूँ तीन राखियाँ
सजाती हूँ थाली
चंदन, आक्षत, दीप से
रखती हूँ तीनों राखियाँ प्रेम से
मिठाइयों के साथ।
फिर….
करती हूँ इंतजार भाइयों के आने की
और वो आते भी हैं
लेकिन खुशियों की एक भी रेखा
नहीं उभरती किसी के भी चेहरे पर
न मेरे और न भाई के
रहती है तो बस गमगीन खामोशी
गहन उदासी।
और तब
बिना किसी आहट
बिना किसी हलचल के
बेमन से बढ़ती हैं दो कलाईयाँ
राखी की थाली की ओर
कांपती उंगलियों से उनके मस्तक पर
टिपती हूँ चंदन के साथ अक्षत
और बांधकर राखी
बढ़ाती हूँ मिठाइयों का डब्बा
उनकी तरफ़
लेकिन…..
मेरे मिठाईखोर भाई
बस टुकड़ा भर ही मिठाई
रख कर मुंह में
निकालते हैं जेब से कुछ नेग
जिसे लेने से मैं कर देती हूँ इनकार
अपनी डबडबाई आंखों को छुपाते हुए।
और फिर….
और फिर वो भी बिना ज़िद किये
चले जाते हैं किसी एकान्त कोने में
अपनी पलकों को निचोड़ने के लिए।
फिर मैं निहारती हूँ एकटक
थाली में रखी उस तीसरी राखी को
जो कर रहा होता है इंतज़ार
उस तीसरी कलाई का
जिसके होने से
जिंदगी हमारी थी गुलज़ार
भाई मेरे !
तुझे यूँ न जाना था
वक्त से पहले
तुम थे तो…
तुम थे तो संग सारा जमाना था।
©️ रानी सिंह