तिरस्कृत-वेदना
जला रहे हैं बिना आग के,
बीज भेद के उगा रहे हैं |
ऊँच-नीच की परिपाटी में,
ज़हर समाज में जगा रहे हैं|
रुला-रुलाकर खून के आँसू ,
ढाते ज़ुल्म गुलछर्रे उड़ाकर!
दिया सुकून जिन्होंने सबको,
अथक प्रयास महल बनाकर!
अजब देश में बनी कुरीति,
नीच विचार के उच्च धनी हैं!
करे श्रम जो सबकी खातिर,
निर्धन नीच अछूत वही है!
छुआ-छूत कई सदी बीत गईं,
बेतर्क जकड़े अंधे सूत में|
राजा रंक प्रजा सब अंधे,
अतर्क ‘मयंक’ सब बंँधे बूत में |
✍के.आर.परमाल ‘मयंक’