तव़ारीख़
हर सुबह शुरू होती है मौज़े बहार से।
हर रात खत्म होती है इसी इंंतज़ार से ।
हर दिन गुजरता है रफ़्ताा रफ़्ता दिले बेक़रार से।
हरसूँ तव़ारीख़ की कलम से लिखे गए स्याह निशान हैं।
जिसमें हर शै तो क्या है नाचते कठपुतलियों की तरह इंसान है।
ये निशान कभी कहते कहानी जुल्मो अल्मत की ।
तो करते कभी बयाँ अफ़साने दीवानी उल्फ़त के ।
ये निशान कभी छोड़ते द़ाग दिलों पर जो मिटाए नहीं मिटते ।
लिखते वो दास्तां कभी जो ह़रफ़ो में नहीं सिमटते।
बनाते ये तस्वीर जे़हन पर जो वक़्त से धुंधली नही होती ।
हां ये तय है हर पल दर पल तराशी जाती है बदली नहीं होती।