तर्पण ( कहानी)
तर्पण
:दिलीप कुमार पाठक
अभी पितरपख चल रहा है। जजमान के घर से बुलावा आया था पितरन के तर्पण की खातिर। बड़े अच्छे जजमान हैं। इनका एक बेटा और एक बेटी, बेटा-बेटी दोनों विदेश में रहते हैं। अपने भी एडमिस्ट्रेशन में थे, अवकाश प्राप्ति पश्चात् पति-पत्नी अपने हाई प्रोफाइल सोसाइटी वाले डूप्लेक्स में रहते हैं।
पिछले साल तर्पण के साथ-साथ पूरा विधि-विधान से पिंड-पूजन भी कराये थे। इस बार इनकी पहले से ही हिदायत थी शॉर्ट चलने की।
” बूढ़ा शरीर है, उतना नहीं बनेगा पंडित जी। कुछ शॉर्ट फॉर्म बताइए. जिससे काम भी हो जाय और पितर भी सन्तुष्ट रहें।”
अपने यहाँ उसकी भी व्यवस्था है। कुछ न बने तो एकान्त स्थल पर जाकर दोनों भुजाओं को उठाकर पितरों से प्रार्थना करें:-
हे मेरे पितृगण ! मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है, न धान्य आदि। हाँ मेरे पास आपके लिए श्रद्धा और भक्ति है। मैं इन्हीं के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूँ. आप तृप्त हो जायँ।
न मेsस्ति वितं न धनं च नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृन्नतोस्मि |
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य ||
” क्या पंडित जी ? आप भी न…..”
” चलिए तब तर्पण का कार्यक्रम रखा जाय. उसके बाद पञ्चबलि दे दिजीएगा. तब ब्राह्मण भोजन और दक्षिणा।”
” ये पञ्चबलि क्या होता है ?”
” गो, श्वान, काक, देव और चींटी आदि को भोजन देना पञ्चबलि है।”
” हाँ ये ठीक रहेगा. इतना से पितर तृप्त हो जाएँगे न ?”
” हाँ-हाँ, निश्चित रूप से”
” तो आप मेरे यहाँ प्रात: नौ तक पहुँच जाइए। सामग्री क्या-क्या लगेगा ?”
” तिल-जौ-चावल……”
” ठहरिए-ठहरिए पंडित जी, कागज-कलम निकाल लेते हैं या एक दिन आप आ ही जाते। आप व्यस्त होंगे, है न। सुने हैं आपके पास एक ट्रक भी है, उसको भी तो…….”
” आप सामग्री पहले सुन तो लिजीए, ज्यादा कुछ नहीं लगेगा।”
” हाँ, हाँ, लिखाइए।”
” तिल-जौ-चावल-कुश-सफेद पुष्प-अगरबती-सफेद चंदन और घर का लोटा, कठौत बस…”
” बस इतना में ही हो जाएगा।”
” और सर जी आपका मन”
” ठीक पंडित जी, तब आप एकादशी के दिन नौ बजे आ रहे हैं. डायरी में लिख लिजीए. नहीं तो भुल-भाल गये बस..”
“अच्छा जय राम जी की।”
कभी-कभी कोई एकादशी सह लेता हूँ। पहले तो लगातार सहता था। चिड़चिड़ी की दातुन से मूँह धोता था। तब भी कभी-कभी अपने जीभ-चटोरपन के कारण एकादशी बीच में ही भंग हो जाता था। एकबार जब गया में ही था। एकादशी उपवास चल रहा था। बाजार निकलना हुआ। एक मशहूर ठेला वाला था, वह भेंटा गया और उसके ठेले पर का दहीबड़ा दिख गया. उसपर से भी उसका आग्रह, ” आइए पंडित जी, आज दहीबड़ा खा लिजीए।”
बस दहीबड़ा गटक गया। हाथ धोते वक्त याद आया कि हम तो एकादशी में हैं।
यह पितृपक्षीय एकादशी तो एकदम ही सम्भव नहीं है। पंडिताइन से कह बैठा, ” मेरे लिए आज कुछ भी नहीं बनाइएगा।”
” काहे ? आज एकादशी भुखना है का ? सब एकादशी छोड़ के इ पितरपखबे वाला……”
” न भाई, जजमान घर जाना है।”
मन्दिर गया. मन्दिर से आया। पेट गड़गड़ा रहा था तो एकबार और हल्का हो लिया। साढ़े नौ बज गया। अरे अरे! यह तो बिलम्ब हो रहा है।
” हलौ…..”
” नमस्ते पंडित जी।”
” तब आ जायँ न।”
” हाँ हाँ आ जाइए। हम इन्तजार ही कर रहे हैं।”
जजमान के पास पितरों की लम्बी लिस्ट थी। सभी पितरों की बड़ी-बड़ी कृपा गिनाने लगे।
” वे ऐसे थे तो वे ऐसे और उनकी हमपर इस तरह की ऐसी कृपा। जिनके कारण आज हम इस स्थिति में हैं। बस एक पोता हो जाय तो पितरन को बैठाने गयाजी पहुँचें। क्योंकि और आगे लगता है कोई नहीं ढो पाएगा। अब हम भी थक चले हैं।”
तर्पण का कार्यक्रम शुरू हुआ। देव तर्पण पूर्वाभिमुख, जनेऊ को सव्य रखकर, गमछे को बायें कंधे पर रख, दाहिना घुटना जमीन से लगाना था मगर अवस्था दोष के कारण लगना सम्भव नहीं। चावल और तीन कुशाग्र ले देवतीर्थ से अर्थात् दायें हाथ की अँगुलियों के अग्रभाग से जलाञ्जली एक पीतल पात्र में एक-एक बार ‘ तृप्यताम्’ बोलते हुए २९ बार।
फिर एक-एक अञ्जली जल ऋषि तर्पण के लिए दस बार देव विधि अनुसार ही।
तब दिव्य मनुष्य तर्पण : उत्तराभिमुख होकर, जनेऊ को कंठी की तरह बनाकर, गमछे को कण्ठी की तरह करके, सीधा बैठकर जौ और तीन कुशाग्र के साथ प्रजापत्य तीर्थ से अर्थात् कुशों को दाहिने हाथ की कनिष्ठिका के मूलभाग में रखकर दो-दो जलाँजलियाँ सात दिव्य मनुष्यों को।
तब दिव्य पितृ तर्पण : जजमान दक्षिणाभिमुख , अपसव्य अर्थात् जनेऊ को दाहिने कंधे पर रखकर बायें हाथ के नीचे ले जाना, गमछे को भी दाहिने कंधे पर रखना। बायाँ घुटना जमीन पर लगाकर बैठना, जो सम्भव नहीं था। तो यथासम्भव। कृष्ण तिल ले तीन कुशों को मोड़कर उनकी जड़ और अग्रभाग को दाहिने हाथ में तर्जनी और अँगुठे के बीच में रखकर पितृतीर्थ से अर्थात् अँगुठे और तर्जनी के मध्यभाग से आठ तीन-तीन जलाँजली , ” तस्मै स्वधा नम:| तस्मै स्वधा नम:|| तस्मै स्वधा नम:|||” अथवा
” तेभ्य: स्वधा नम:| तेभ्य: स्वधा नम:|| तेभ्य: स्वधा नम:|||”
” पंडित जी हमारे पितर कब आएँगे ? उनकी इतनी बड़ी लिस्ट बना रखी है हमने। कहीं….”
” घबराइए नहीं, आने की प्रक्रिया में हैं। चलिए अब पितृ तीर्थ से ही यम तर्पण किजीए चौदह बार तीन-तीन जलाँजली।”
” चौदह क्यों ?”
” क्योंकि यम मंडली चौदह की है इसीलिए।”
” हमारे पितरों की भी लिस्ट बहुत बड़ी है पंडित जी। उनका भी ख्याल रखिएगा।”
ऊँ यमाय नम:, यमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम:, तस्मै स्वधा नम:, तस्मै स्वधा नम:||
…….
” अब आ गया आपका मनुष्यपितृ तर्पण. हाथ जोड़कर पहले आवाहन किजीए।”
” ऊँ उशन्तस्त्वा नि धीमह्युशन्त: समिधीमहि |
उशन्नुशत आ वह पितृन् हविषे अत्तवे ||”
” ऊँ आगच्छन्तु मे पितर इमं गृह्णन्तु जलाञ्जलिम् |”
” अमुक गोत्र: अस्मतपिता………..”
” अमुक गोत्रा अस्मन्माता…………”
फिर पितृतीर्थ से जल गिराते हुए, ” ऊँ मधु | मधु | मधु | तृप्यध्वम् | तृप्यध्वम् | तृप्यध्वम् |”
” ऊँ नमो व: पितरो रसाय नमो व: पितर: शोषाय नमो व: पितरो जीवाय नमो व: पितर: स्वधायै नमो व: पितरो घोराय नमो व: पितरो मन्यवे नमो व: पितर: पितरो नमो वो गृहान्न पितरो दत्त सतो व: पितरो देष्मैतद्व: पितरो वास आथत्त |”
फिर ननिहाल पक्षीय पितर तर्पण।
तब सगे-सम्बन्धि-पितर तर्पण।
तब देव तीर्थ एवं पितर तीर्थ से जलाँजली।
वस्त्र-निष्पीडन।
” पंडित जी, पंडित जी … भीष्म तर्पण तो लगता है…….. ”
” अब वही होगा। पितृतीर्थ और कुशों से जल दें।”
भीष्म: शान्तनवो वीर: सत्यवादी जितेन्द्रिय: |
आभिरद्भिरवाप्नोतु पुत्रपौत्रोचितां क्रियाम् ||
तब आचमन और प्राणायम् पश्चात् पूर्वीभिमुख, सव्य हो सूर्यार्घ्य दान। अर्घ्यपात्र में फुल, चन्दन और जल लेकर,
” नमो विवस्वते ब्रह्मण! भास्वते विष्णुतेजसे |
जगत्सवित्रे शुचये सवित्रे कर्मदायिने ||”
फिर प्रदक्षिणा, दिशापतियों को दण्ड प्रणाम् ! नमस्कार!
और तब तर्पण-कर्म भगवान को समर्पण। स्मरण।
ऊँ विष्णवे नम: | ऊँ विष्णवे नम: || ऊँ विष्णवे नम: ||
तब पञ्चबलि और ब्राह्मण भोजन।
” बैठिए पंडित जी हॉल के सोफे पर। आप भी बहुत थक गये होंगे।” जजमानी बोलीं थीं, ठीक वानप्रस्थी की तरह लग रही थीं, सुसंस्कृत, सुहृदय, ममतामयी।
“जी… जरा जल्दी।”
” कहीं और जाना है पंडित जी। ये तर्पण दिनभर में कितने जगह करा लेते हैं ?”
” गजब सवाल है जजमानी माता का।” मन ही मन विचार करने लगा.
” गौ-ग्रास ये सब…..”
” हाँ पंडित जी, वह हम निकाल लेंगे।”
पंडित जी का सीधा-बारी चावल-आटा-आलु-कुछ हरी सब्जी-दाल-नमक-हल्दी सब एक टोकरी में ला धरीं।
मेरे पेट में तो कलछी कूद रही थी। दो-दो नौकरानी रसोईघर में खटर-पटर कर रही थीं। कुछ संशय हो रहा था, मगर उदर था जो आशान्वित था। लग रहा था, इनके पितर मेरे उदर में अवस्थित हो गये हैं और खटर-पटर मचा रहे हैं।
कुछ समय पश्चात् बुजुर्ग जजमान के लिए और मेरे लिए एक-एक केला लायीं।
” बड़ा अच्छा केला है। एकदम पेटभरूआ।”
” पंडित जी श्रीमती जी बड़ा सोंच-समझकर बजार करती हैं. उन्हीं का लाया हुआ है।”
” जी।”
मैं समझने लगा था कि वास्तविक भोजन में संशय है।
पंडिताइन सुबह ही उलाहना दे रही थीं, ” पहले क्यों नहीं बताये थे कि आपको जजमान घर खाना है। हम भात बनाकर रख लिए हैं। क्या होगा भात का ?”
भगवान करे पंडिताइन का बनाया भात बचा हो। यहाँ तो…..
जजमानी फिर प्रकट हुईं दो कटोरियों में सोनपापड़ी के साथ।
” केला खाकर पानी नहीं पीना चाहिए, अत: सोनपापड़ी खाइए। ये नौकरानी लोग न भोजन में आज भी……………”
जय हो जजमानी की।
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