तमाशा लगता है
जीव जगत का जीना मरना
एक तमाशा लगता है।
कठपुतली सा खेल दिन रात
भूलोक पर चलता है।
इसकी डोर विधाता के पास
सबको नाच नचाता है।
रचना बड़ी निराली है यह
पात्र बदलता रहता हैं।
एक की डोर कट जाती है तो
नया पात्र मिल जाता है।
विष्णु जीवन में वही पात्र ही
विधाता को भी भाता है।
जो जगत में नायक बनकर
अपना पात्र निभाता है।
-विष्णु प्रसाद ‘पाँचोटिया’