” तब गाँव हमें अपनाता है “
छुट्टियों में त्योहारों में
गाँव जाते थे हम
क्योंकि गाँव बसता था
हमारे व्यवहारों में ,
हमारे गाँव जाने का
एक मकसद होता था
मन उत्तेजनाओं से
भरा होता था ,
मकसद था मस्ती का
अपनों से मिलने की खुशी का
सबके साथ बैठने का
किस्से कहानियाँ गढ़ने का ,
घर पहुँचते ही छोटी डाली में
अनाज ले दुकान दौड़ते थे
अनाज दे पंसारी को
लेमनचूस ले उससे
तभी वापस पलटते थे ,
आँधी आने पर दौड़ कर
आम के बगीचे में जाना
टोकरियों में ढ़ेरों आम
भर – भर कर लाना ,
चुड़िआइन को बुलाना
उसका इंतजार करना
उसके आने पर झट
अपना हाथ आगे कर देना ,
चूड़ियाँ पहन तरकीब सूझती
उनकी खनक सुनने को
सिल पर नमक डाल
उन्हीं को खुश हो पीसती ,
शाम धुंधली होते ही
लालटेन साफ हो जलती
फिर भाइयों के स्लेटों की
जम कर घिसाई शुरू होती ,
कच्ची बखरी की रसोई में
चाचियों के साथ घुसना
पारंपरिक खानों का नुस्खा
अपने जेहन में रखना ,
गाँव की बसवारियों से
बच कर गुजरना
उनमें रहते भुतों की बातों को
सच में सच मान बैठना ,
दशहरे के मेले में
पैसे खर्च ही नही होते थे
सब खरीद खा लेने पर भी
कुछ बचे ही रहते थे ,
वो शादी में हल्दी पर
सब औरतों का गाना
जाते वक्त खोइचा में
बताशे भर कर ले जाना ,
पचमंगरे सतमंगरे के बाद बहनों का
शादी में हल्दी से रंगीं साड़ी पहनना
सिंदूर दान के बाद
उनका अप्सरा सा निखरना ,
वो गाँव ही था जहाँ हम
शहर को पीछे छोड़ आते थे
सब कुछ भूल कर
वहीं के हो जाते थे ,
आज भी जब हम गाँव जाते हैं
मन यादों में खो जाता है
हम गाँव को अपनाते हैं
तब गाँव हमें अपनाता है ,
सवरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 15/07/2020 )