तब और अब
कभी…
कानों को सुख देता था
सन्नटे को चीरता वो हो हल्ला
और अच्छा लगता था
दिन – भर गलचौर करना ,
सुकून देता था…
सबका हुक्म बजा लाना
बेवजह सबके हिस्से की डाँट खाना ,
उस वक्त दिमाग नही चलता था
हिसाब नही लगता था
चालें दूर खड़ी देखती थीं
तिकड़में पास आने से डरती थीं ,
अचानक सब बदल गया
अनचाही बातों ने जकड़ लिया ,
सन्नाटे अच्छे लगने लगे
खामोशियाँ भाने लगीं ,
वो हुक्म जो प्रेम से बजता था
अब कोड़े सा लगने लगा ,
चालें पास आती गयी
तिकड़में डराती गयी ,
इन सबके बीच कुछ ऐसा है
जो तब भी जैसा था आज भी वैसा है ,
दिमाग….
तब भी नही चलता था
अब भी नही चलता है ,
हिसाब….
तब भी नही लगता था
अब भी नही लगता है ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 18/02/18 )