*तपन*
डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक- अरुण अतृप्त
तपन
मन आज कल किसी का खुश कहां है ?
जैसे तैसे जीने का बस एक बहाना हुआ है ।
जैसी मेरी जिंदगी वैसी ही तोहरी स्थिति है सखी।
सजन अब कौन किसका मददगार यहां हुआ है ।
काम होते हैं बस गुजारे लायक कहने को हुआ है ।
तृप्त होकर व्योम जैसे बेसुध अलसाया सा पड़ा है।
पांच दिन से भास्कर ने दर्शन ही नहीं दिए जगत को ।लगता है वो भी थका हुआ था रीति नीति भूलकर ,
अनीति से बहस में हारा तिरस्कृत शिथिल मायूस, परित्याग के दंश से दग्ध, अपमानित, गुस्सा जिसका अब, समग्र विश्व झेल रहा है ।
मन को कोयला न करना मानव, आस ही तो विश्वास है।
आज बादल है धुआं है कोहरा है तो क्या कल उगेगा नया सूर्य।
ये गणित का त्रिकोण राशि के अनुसार भविष्य भंडार है।
जीवन मंत्र रोज़ जपा कीजिए क्या मैं और क्या आप।
हाड़ मांस का ठीकरा हम सभी के साथ है।
दुविधा में पड़ कर रोना नहीं सुविधा में आलस्य नहीं।
ये जीवन जगत कर्ता ने जैसा दिया उसको खोना नहीं।
मन आज कल किसी का खुश कहां है ?
जैसे तैसे जीने का बस एक बहाना हुआ है ।
फूल को ही देखिए, एक दिन का खिलना जिसका ।
कभी देखा नहीं रोते हुए मुस्कुराता सदा चेहरा उसका।
प्रकृति पुरुष संवाद में पशु नर गावे गीत , सुबह हुई तो खिल उठे, और रात भई निर्जीव।
जितने दिन संसार है वो तेरा खेवनहार है, इसको सिमरन कर मना, बस इतना ही संगीत है।
मन आज कल किसी का खुश कहां है ?
जैसे तैसे जीने का बस एक बहाना हुआ है ।