तन-मन स्वच्छ बने
निश्छल होता मन नहीं,भेजें पर संदेश।
प्रथम वरण हम ही करें,बदले फिर परिवेश।।
नीति नियम दो देखिए,पर खुद के हैं और।
ये तो मानवता नहीं,घोर नीचता दौर।।
प्रीतम झूठी शान में,खोजो मत तुम मान।
सुर का होगा ज्ञान जब,मीठा हो तब गान।।
कड़वी होती है दवा,पर काटे तन रोग।
सच्चाई भी सम दवा,मन को रखे निरोग।।
तुलना करना छोड़िए,उपजें दुख के भाव।
समदर्शी बनके रहें,करें प्रेम फैलाव।।
जीते औरों के लिए,बनते वही महान।
ख़ुशबू बाँटें फूल ज्यों,पाएँ सबका मान।।
शक्ति शील सौंदर्य का,होता सुंदर मेल।
जिसमें तीनों व्याप्त हैं,मनहर जीवन खेल।।
–आर.एस.प्रीतम